tag:blogger.com,1999:blog-73807396012830056752024-03-05T19:10:56.078-08:00LitHindiA project to preserve literature classics and masterpieces for Hindi audience. Handpicked selections only.Sarbakafhttp://www.blogger.com/profile/14532797594298636576noreply@blogger.comBlogger6125tag:blogger.com,1999:blog-7380739601283005675.post-4511380159412035172020-06-02T04:59:00.000-07:002020-06-02T04:59:32.265-07:00चौथी का जोड़ा<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
सहदरी के चौके पर आज फिर साफ़-सुथरी जाज़िम बिछी थी। टूटी-फूटी खपरैल की झिर्रियों में से धूप के आड़े तिर्छे क़त्ले पूरे दालान में बिखरे हुए थे। महल्ले-टोले की औरतें ख़ामोश और सहमी हुई सी बैठी थीं। जैसे कोई बड़ी वारदात होने वाली हो। माओं ने बच्चे छातियों से लगा लिये थे। कभी-कभी कोई मेहनती सा चिड़चिड़ा बच्चा रसद की कमी की दुहाई देकर चिल्ला उठता।<br />
“नाईं-नाईं मेरे लाल!” दुबली पतली माँ उसे अपने घुटने पर लिटा कर यूं हिलाती जैसे धान मिले चावल धूप में पटक रही हो। और फिर हुँकारे भर कर ख़ामोश हो जाता।<br />
आज कितनी आस भरी निगाहें कुबरा की माँ के मुतफ़क्किर चेहरे को तक रही थीं, छोटे अर्ज़ की टोल के दो पाट तो जोड़ लिए गए थे, मगर अभी सफ़ेद गज़ी का निशान ब्योंतने की किसी को हिम्मत न पड़ी थी। काट-छाँट के मुआ’मले में कुबरा की माँ का मर्तबा बहुत ऊँचा था। उनके सूखे-सूखे हाथों ने न जाने कितने जहेज़ सँवारे थे, कितने छटी-छोछक तैयार किए थे और कितने ही कफ़न ब्योंते थे। जहाँ कहीं महल्ले में कपड़ा कम पड़ जाता और लाख जतन पर भी ब्योंत न बैठी, कुबरा की माँ के पास केस लाया जाता। कुबरा की माँ कपड़े की कान निकालतीं, कलफ़ तोड़तीं, कभी तिकोन बनातीं, कभी चोखुंटा करतीं और दिल ही दिल में क़ैंची चला कर आँखों से नाप तौल कर मुस्कुरा पड़तीं।<br />
“आस्तीन के लिए घेर तो निकल आएगा, गिरेबान के लिए कतरन मेरी बुक़ची से ले लो और मुश्किल आसान हो जाती। कपड़ा तराश कर्दा कतरनों की पिंडी बना कर पकड़ा देतीं।<br />
पर आज तो सफ़ेद गज़ी का टुकड़ा बहुत ही छोटा था और सबको यक़ीन था कि आज तो कुबरा की माँ की नाप तौल हार जाएगी, जब ही तो सब दम साधे उनका मुँह तक रही थीं। कुबरा की माँ के पुर इस्तिक़लाल चेहरे पर फ़िक्र की कोई शक्ल न थी, चार गिरह गज़ी के टुकड़े को वो निगाहों से ब्योंत रही थीं। लाल टोल का अ’क्स उनके नीलगूँ ज़र्द चेहरे पर शफ़क़ की तरह फूट रहा था। वो उदास-उदास गहरी झुर्रियाँ अँधेरी घटाओं की तरह एक दम उजागर हो गईं, जैसे घने जंगल में आग भड़क उठी हो, और उन्होंने मुस्कुरा कर क़ैंची उठा ली।<br />
महल्ले वालियों के जमघटे से एक लंबी इत्मिनान की साँस उभरी। गोद के बच्चे भी ठसक दिए गए। चील जैसी निगाहों वाली कुँवारियों ने चम्पा-चम्प सूई के नाकों में डोरे पिरोए, नई ब्याही दुल्हनों ने अंगुश्ताने पहन लिये। कुबरा की माँ की क़ैंची चल पड़ी थी।<br />
सहदरी के आख़िरी कोने में पलंगड़ी पर हमीदा पैर लटकाए हथेली पर ठोढ़ी रखे कुछ सोच रही थी।<br />
दोपहर का खाना निमटा कर उसी तरह बी अम्माँ सहदरी की चौकी पर जा बैठती हैं और बुक़ची खोल कर रंग-बिरंगे कपड़ों का जाल बिखेर दिया करती हैं। कूँडी के पास बैठी माँझती हुई कुबरा कनखियों से उन लाल कपड़ों को देखती तो एक सुर्ख़ झपकी उस ज़र्दी-माइल मटियाए रंग में लपक उठती। रुपहली कटोरियों के जाल जब पोले-पोले हाथों से खोल कर अपने ज़ानुओं पर फैलातीं तो उनका मुरझाया हुआ चेहरा एक अ’जीब अरमान भरी रौशनी से जगमगा उठता। गहरी संदूक़ों जैसी शिकनों पर कटोरियों का अ’क्स नन्ही-नन्ही मशा’लों की तरह जगमगाने लगता। हर टाँके पर ज़री का काम हिलता और मशअ’लें कपकपा उठतीं।<br />
याद नहीं कब उसके शबनमी दुपट्टे बने, टके तैयार हुए और गाड़ी के भारी क़ब्र जैसे संदूक़ की तह में डूब गए। कटोरियों के जाल धुँदला गए। गंगा-जमुनी किरनें माँद पड़ गईं। तूली के लच्छे उदास हो गए मगर कुबरा की बरात न आई। जब एक जोड़ा पुराना हो जाता तो उसे चाले का जोड़ा कह कर सैंत दिया जाता और फिर एक नए जोड़े के साथ नई उम्मीदों का इफ़्तिताह हो जाता। बड़ी छानबीन के बाद नई दुल्हन छाँटी जाती। सहदरी के चौके पर साफ़ सुथरी चादर बिछती। महल्ले की औरतें हाथ में पानदान और बग़लों में बच्चे दबाए झाँझें बजाती आन पहुँचतीं।<br />
“छोटे कपड़े की गोंट तो उतर आएगी, पर बच्चियों का कपड़ा न निकलेगा।”<br />
“लो बुआ लो और सुनो। तो क्या निगोड़ मारी टोल की चूलें पड़ेंगी?” और फिर सब के चेहरे फ़िक्रमंद हो जाते। कुबरा की माँ ख़ामोश कीमियागर की तरह आँखों के फीते से तूल-ओ-अर्ज़ नापती और बीवियाँ आपस में छोटे कपड़े के मुता’ल्लिक़ खुसर-फुसर कर के क़हक़हा लगातीं। ऐसे में कोई मन चली कोई सुहाग या बन्ना छेड़ देती। कोई और चार हाथ आगे वाली समधनों को गालियाँ सुनाने लगती, बेहूदा गंदे मज़ाक़ और चुहलें शुरू हो जातीं। ऐसे मौक़ों पर कुँवारी बालियों को सहदरी से दूर सर ढाँक कर खपरैल में बैठने का हुक्म दे दिया जाता और जब कोई नया क़हक़हा सहदरी से उभरता तो बे-चारियाँ एक ठंडी साँस भर कर रह जातीं। “अल्लाह! ये क़हक़हे उन्हें ख़ुद कब नसीब होंगे?”<br />
इस चहल-पहल से दूर कुबरा शर्म की मारी मच्छरों वाली कोठरी में सर झुकाए बैठी रहती। इतने में कतर ब्योंत निहायत नाज़ुक मरहले पर पहुँच जाती। कोई कली उल्टी कट जाती और उसके साथ बीवियों की मत भी कट जाती। कुबरा सहम कर दरवाज़े की आड़ से झाँकती।<br />
यही तो मुश्किल थी। कोई जोड़ा अल्लाह मारा चैन से न सिलने पाया। जो कली उल्टी कट जाए तो जान लो नाइन की लगाई हुई बात में ज़रूर कोई अड़ंगा लगेगा। या तो दूल्हा की कोई दाश्ता निकल आएगी या उसकी माँ ठोस कड़ों का अड़ंगा बाँधेगी, जो गोट में कान आ जाए तो समझ लो या तो मेहर पर बात टूटेगी या भरत के पायों के पलंग पर झगड़ा होगा। चौथी के जोड़े का शगुन बड़ा नाज़ुक होता है। बी अम्माँ की सारी मश्शाक़ी और सुघड़ापा धरा रह जाता। न जाने ऐ’न वक़्त पर क्या हो जाता कि धनिया बराबर बात तूल पकड़ जाती। बिसमिल्लाह के ज़ोर से सुघड़ माँ ने जहेज़ जोड़ना शुरू कर दिया था। ज़रा सी कतरन भी बचती तो तीले दानी या शीशी का ग़लाफ़ सी कर धनक गोखरु से सँवारकर रख देतीं। लड़की का क्या है खीरे ककड़ी की तरह बढ़ती है। जो बरात आ गई तो यही सलीक़ा काम आएगा।<br />
और जब से अब्बा गुज़रे। सलीक़ा का भी दम फूल गया। हमीदा को एक दम अब्बा याद आ गए। अब्बा कितने दुबले-पुतले लंबे जैसे मुहर्रम का अ’लम। एक-बार झुक जाते तो सीधे खड़ा होना दुश्वार था। सुबह ही सुबह उठकर नीम की मिस्वाक तोड़ लेते और हमीदा को घुटने पर बिठा कर न जाने क्या सोचा करते। फिर सोचते-सोचते नीम की मिस्वाक का कोई फूँसड़ा हलक़ में चला जाता और वो खाँसते ही चले जाते। हमीदा बिगड़ कर उनकी गोद से उतर आती। खाँसी के धक्कों से यूँ हिल-हिल जाना उसे क़तई पसंद न था। उसके नन्हे से ग़ुस्से पर वो हंसते और खाँसी सीने में बेतरह उलझती जैसे गर्दन कटे कबूतर फड़फड़ा रहे हों। फिर भी अम्माँ आकर उन्हें सहला देतीं। पीठ पर धप-धप हाथ मारतीं।<br />
“तौबा है, ऐसी भी क्या हंसी?”<br />
अच्छू के दबाव से सुर्ख़ आँखें ऊपर उठा कर अब्बा बेकसी से मुस्कुराते। खाँसी तो रुक जाती मगर वो देर तक बैठे हाँपा करते।<br />
“कुछ दवा-दारू क्यों नहीं करते? कितनी बार कहा तुमसे?”<br />
“बड़े शिफ़ा-ख़ाने का डाक्टर कहता है सूईयाँ लगवाओ और रोज़ तीन पाव दूध और आधी छटाँक मक्खन।”<br />
“ए ख़ाक पड़े इन डाक्टरों की सूरत पर। भला एक तो खाँसी है ऊपर से चिकनाई। बलग़म न पैदा कर देगी। हकीम को दिखाओ किसी को।”<br />
“दिखाऊँगा।” अब्बा हुक़्क़ा गुड़ गुड़ाते और फिर अच्छू लगता।<br />
“आग लगे इस मुए हुक़्क़े को। इसी ने तो ये खाँसी लगाई है। जवान बेटी की तरफ़ भी देखते हो आँख उठा कर।”<br />
और अब्बा कुबरा की जवानी की तरफ़ रहम तलब निगाहों से देखते। कुबरा जवान थी। कौन कहता था कि जवान थी। वो तो जैसे बिसमिल्लाह के दिन से ही अपनी जवानी की आमद की सुनावनी सुनकर ठिठक कर रह गई थी। न जाने कैसी जवानी आई थी कि न तो उसकी आँखों में किरनें नाचीं न उसके रुख़्सारों पर ज़ुल्फ़ें परेशान हुईं न उसके सीने पर तूफ़ान उठे, कभी सावन-भादो की घटाओं से मचल-मचल कर प्रीतम या साजन माँगे। वो झुकी-झुकी सहमी-सहमी जवानी जो न जाने कब दबे-पाँव उस पर रेंग आई, वैसे ही चुप-चाप न जाने किधर चल दी। मीठा बरस नमकीन हुआ और फिर कड़वा हो गया।<br />
अब्बा एक दिन चौखट पर औंधे मुँह गिरे और उन्हें उठाने के लिए किसी हकीम या डाक्टर का नुस्ख़ा न आ सका। और हमीदा ने मीठी रोटी के लिए ज़िद करनी छोड़ दी। और कुबरा के पैग़ाम न जाने किधर रास्ता भूल गए। जानो किसी को मा’लूम ही नहीं कि इस टाट के पर्दे के पीछे किसी की जवानी आख़िरी सिसकियाँ ले रही है। और एक नई जवानी साँप के फन की तरह उठ रही है।<br />
मगर बी अम्माँ का दस्तूर न टूटा, वो उसी तरह रोज़ दोपहर को सहदरी में रंग-बिरंगे कपड़े फैला कर गुड़ियों का खेल खेला करती हैं। कहीं न कहीं से जोड़ जमा कर के शबरात के महीने में क्रेप का दुपट्टा साढे़ सात रुपये में ख़रीद ही डाला। बात ही ऐसी थी कि बग़ैर ख़रीदे गुज़ारा न था। मँझले मामूँ का तार आया कि उनका बड़ा लड़का राहत पुलिस की ट्रेनिंग के सिलसिले में आ रहा है। बी अम्माँ को तो बस जैसे एकदम घबराहट का दौरा पड़ गया। जानो चौखट पर बरात आन खड़ी हुई। और उन्होंने अभी दुल्हन की माँग की अफ़्शाँ भी नहीं कतरी। हौल से तो उनके छक्के छूट गए। झट अपनी मुँह बोली बहन बिंदु की माँ को बुला भेजा कि “बहन मेरा मरी का मुँह देखो जो इसी घड़ी न आओ।”<br />
और फिर दोनों में खुसर-फुसर हुई। बीच में एक नज़र दोनों कुबरा पर भी डाल लेतीं जो दालान में बैठी चावल फटक रही थी। वो इसकानाफूसी की ज़बान को अच्छी तरह समझती थी।<br />
उसी वक़्त बी अम्माँ ने कानों की चार माशा की लौंगें उतार कर मुँह बोली बहन के हवाले कीं कि जैसे-तैसे कर के शाम तक तोला भर गोखरु, छ: माशा सलमा सितारा और पाव गज़ नेफ़े के लिए टोल ला दें। बाहर की तरफ़ वाला कमरा झाड़ पोंछ कर तैयार किया। थोड़ा सा चूना मंगा कर कुबरा ने अपने हाथों से कमरा पोत डाला। कमरा तो चिट्टा हो गया मगर उसकी हथेलियों की खाल उड़ गई और जब वो शाम को मसाला पीसने बैठी तो चक्कर खा कर दोहरी हो गई। सारी रात करवटें बदलती गुज़री। एक तो हथेलियों की वजह से, दूसरे सुबह की गाड़ी से राहत आ रहे थे।<br />
“अल्लाह! मेरे अल्लाह मियाँ! अब के तो मेरी आपा का नसीबा खुल जाए। मेरे अल्लाह मैं सौ रका’त नफिल तेरी दरगाह में पढ़ूँगी।” हमीदा ने फ़ज्र की नमाज़ पढ़ कर दुआ’ माँगी।<br />
सुब्ह राहत भाई आए तो कुबरा पहले ही से मच्छरों वाली कोठरी में जा छुपी थी। जब सेवईयों और पराठों का नाश्ता कर के बैठक में चले गए तो धीरे-धीरे नई दुल्हन की तरह पैर रखती कुबरा कोठरी से निकली और झूटे बर्तन उठा लिये। “लाओ मैं धोऊँ बी आपा।” हमीदा ने शरारत से कहा।<br />
“नहीं।” वो शर्म से झुक गई।<br />
हमीदा छेड़ती रही, बी अम्माँ मुस्कुराती रहीं और क्रेब के दुपट्टे में लप्पा टाँकती रहीं।<br />
जिस रास्ते कान की लौंगें गई थीं उसी रास्ते फूल पत्ता और चाँदी की पाज़ेब भी चल दी और फिर हाथों की दो-दो चूड़ियाँ भी जो मँझले मामूँ ने रँडापा उतारने पर दी थीं। रूखी-सूखी ख़ुद खा कर आए दिन राहत के लिए पराठे तले जाते, कोफ्ते, भुना पुलाव महकते। ख़ुद सूखा सा निवाला पानी से उतार कर वो होने वाले दामाद को गोश्त के लच्छे ख़िलातीं।<br />
“ज़माना बड़ा ख़राब है बेटी।” वो हमीदा को मुँह फैलाते देखकर कहा करतीं। और वो सोचा करती। “हम भूके रह कर दामाद को खिला रहे हैं। बी आपा सुब्ह-सवेरे उठकर जादू की मशीन की तरह जुट जाती है। निहार मुँह पानी का घूँट पी कर राहत के लिए पराठे तलती है। दूध औंटाती है ताकि मोटी सी मलाई पड़े। उसका बस नहीं था कि वो अपनी चर्बी निकाल कर उन पराठों में भर दे। और क्यों न भरे। आख़िर को वो एक दिन उसका अपना हो जाएगा। जो कुछ कमाएगा उसकी हथेली पर रख देगा। फल देने वाले पौदे को कौन नहीं सींचता? फिर जब एक दिन फूल खिलेंगे और फलों से लदी हुई डाली झुकेगी तो ये ता’ना देने वालियों के मुँह पर कैसा जूता पड़ेगा और इस ख़्याल ही से मेरी बी आपा के चेहरे पर सुहाग खिल उठा। कानों में शहनाइयाँ बजने लगतीं। और वो राहत भाई के कमरे को पलकों से झाड़तीं। उनके कपड़ों को प्यार से तह करतीं। जैसे वो कुछ उनसे कहते हों । वो उनके बदबूदार चूहों जैसे सडे हुए मौज़े धोतीं। बिसाँदी बनियान और नाक से लिथड़े हुए रूमाल साफ़ करतीं। उनके तेल में चहचहाते हुए तकिए के ग़लाफ़ पर स्वीट ड्रीम काढ़तीं। पर मुआ’मला चारों कोने चौकस नहीं बैठ रहा था। राहत सुबह अंडे पराठे डट कर खाता । और शाम को आकर कोफ्ते खा कर सो जाता। और बी अम्माँ की मुँह बोली बहन हाकिमाना अंदाज़ में खुसर-फुसर करतीं।<br />
“बड़ा शर्मीला है बेचारा।” बी अम्माँ तावीलें पेश करतीं। “हाँ ये तो ठीक है पर भई कुछ तो पता चले रंग-ढंग से, कुछ आँखों से।”<br />
“ए नौज, ख़ुदा न करे मेरी लौंडिया आँखें लड़ाए। उसका आँचल भी नहीं देखा है किसी ने।” बी अम्माँ फ़ख्र से कहतीं।<br />
“ए तो पर्दा तुड़वाने को कौन कहे है।” बी आपा के पक्के मुहासों को देखकर उन्हें बी अम्माँ की दूर अंदेशी की दाद देनी पड़ी।<br />
“ए बहन, तुम तो सच में बहुत भोली हो। ये मैं कब कहूँ हूँ। ये छोटी निगोड़ी कौन सी बकरीद को काम आएगी?” वो मेरी तरफ़ देखकर हँसती।<br />
“अरे ओ नक चढ़ी! बहनोई से कोई बातचीत, कोई हंसी-मज़ाक़, उँह वारी चल दीवानी।”<br />
“ए तो मैं क्या करूँ ख़ाला?”<br />
“राहत मियाँ से बातचीत क्यों नहीं करती?”<br />
“भई हमें तो शर्म आती है।”<br />
“ए हे, वो तुझे फाड़ ही तो खाएगा।” बी अम्माँ चिड़ कर बोलीं।<br />
“नहीं तो। मगर...” मैं ला-जवाब हो गई और फिर मिस्कोट हुई। बड़ी सोच बिचार के बाद खल के कबाब बनाए गए। आज बी आपा भी कई बार मुस्कुरा पड़ीं, चुपके से बोलीं,<br />
“देखो हँसना नहीं, नहीं तो सारा खेल बिगड़ जाएगा।”<br />
“नहीं हँसूँगी।” मैंने वाअ’दा किया।<br />
“खाना खा लीजिए।” मैंने चौकी पर खाने की सेनी रखते हुए कहा। फिर जो पट्टी के नीचे रखे हुए लोटे से हाथ धोते वक़्त मेरी तरफ़ सर से पाँव तक देखा तो मैं भागी वहाँ से। मेरा दिल धक-धक करने लगा।<br />
अल्लाह तौबा क्या ख़न्नास आँखें हैं। “जा निगोड़ी मारी अरी देख तो सही,वो कैसा मुँह बनाता है। ए हे सारा मज़ा किरकिरा हो जाएगा।”<br />
आपा बी ने एक-बार मेरी तरफ़ देखा। उनकी आँखों में इल्तिजा थी। लौटी हुई बरातों का ग़ुबार था और चौथी के पुरानी जोड़ों की मानिंद उदासी। मैं सर झुकाए फिर खम्बे से लग कर खड़ी हो गई।<br />
राहत ख़ामोश खाते रहे, मेरी तरफ़ न देखा। खली के कबाब खाते देखकर मुझे चाहिए था कि मज़ाक़ उड़ाऊँ। क़हक़हा लगाऊँ कि “वाह जी वाह दूल्हा भाई! खली के कबाब खा रहे हो।” मगर जानो किसी ने मेरा नरख़रा दबोच लिया हो।<br />
बी अम्माँ ने जल कर मुझे वापस बुला लिया। और मुँह ही मुँह में मुझे कोसने लगीं। अब मैं उनसे क्या कहती कि वो मज़े से खा रहा है कमबख़्त।<br />
“राहत भाई! कोफ्ते पसंद आए?” बी अम्माँ के सिखाने पर मैंने पूछा।<br />
जवाब नदारद।<br />
“बताईए ना?”<br />
“अरी ठीक से जा कर पूछ।” बी अम्माँ ने ठोका दिया।<br />
“आपने ला कर दिए। और हमने खाए। मज़े-दार ही होंगे।”<br />
“अरे वाह-रे जंगली।” बी अम्माँ से न रहा गया।<br />
“तुम्हें पता भी न चला, क्या मज़े से खली के कबाब खा गए।”<br />
“खली के? अरे तो रोज़ काहे के होते हैं? मैं तो आ’दी हो चुका हूँ खली और भूसा खाने का।”<br />
बी अम्माँ का मुँह उतर गया। बी आपा की झुकी हुई पलकें ऊपर न उठ सकीं। दूसरे रोज़ बी आपा ने रोज़ाना से दोगुनी सिलाई की। और फिर शाम को जब मैं खाना लेकर गई तो बोले, “कहिए आज क्या लाए हैं? आज तो लकड़ी के बुरादे की बारी है।”<br />
“क्या हमारे यहाँ का खाना आपको पसंद नहीं आता?” मैंने जल कर कहा।<br />
“ये बात नहीं। कुछ अ’जीब सा मालूम होता है। कभी खली के कबाब तो कभी भूसे की तरकारी।”<br />
मेरे तन-बदन में आग लग गई। हम सूखी रोटी खा के उसे हाथी की ख़ुराक दें। घी टपकते पराठे ठुंसाएँ। मेरी बी आपा को जोशाँदा नसीब नहीं और उसे दूध मलाई निगलवाईं। मैं भन्नाकर चली आई।<br />
बी अम्माँ की मुँह बोली बहन का नुस्ख़ा काम आ गया और राहत ने दिन का ज़्यादा हिस्सा घर ही में गुज़ारना शुरू कर दिया। बी आपा तो चूल्हे में फुकी रहतीं। बी अम्माँ चौथी के जोड़े सिया करतीं। और राहत की ग़लीज़ आँखें तेज़ बन कर मेरे दिल में चुभा करतीं। बात बे बात छेड़ना। खाना खिलाते वक़्त कभी पानी तो कभी नमक के बहाने से और साथ-साथ जुमले बाज़ी में खिसिया कर बी आपा के पास जा बैठती। जी चाहता कि किसी दिन साफ़ कह दूँ कि किस की बिक्री और कौन डाले दाना घास। ए बी मुझसे तुम्हारा ये बैल न नाथा जाएगा। मगर बी आपा के उलझे हुए बालों पर चूल्हे की उड़ती हुई राख... नहीं... मेरा कलेजा धक से हो गया। मैंने उनके सफ़ेद बाल लट के नीच छुपा दिये। नास जाए इस कमबख़्त नज़ले का बेचारी के बाल पकने शुरू हो गए।<br />
राहत ने फिर किसी बहाने से मुझे पुकारा। “उंह!” में जल गई। पर बी आपा ने कटी हुई मुर्ग़ी की तरह जो पलट कर देखा तो मुझे जाना ही पड़ा।<br />
“आप हमसे ख़फ़ा हो गईं?” राहत ने पानी का कटोरा लेकर मेरी कलाई पकड़ ली। मेरा दम निकल गया और भागी तो हाथ झटक कर।<br />
“क्या कह रहे थे?” बी आपा ने शर्म-ओ-हया से घुटी हुई आवाज़ में कहा। मैं चुप-चाप उनका मुँह तकने लगी।<br />
“कह रहे थे किसने पकाया है खाना। वाह-वाह! जी चाहता है खाता ही चला जाऊँ। पकाने वाली के हाथ खा जाऊँ... ओह नहीं... खा नहीं बल्कि चूम लूँ।”<br />
मैंने जल्दी-जल्दी कहना शुरू किया और बी आपा का खुर्दरा हल्दी धनिया की बिसाँद में सड़ा हुआ हाथ अपने हाथ से लगा लिया। मेरे आँसू निकल आए। “ये हाथ।” मैंने सोचा जो सुबह से शाम तक मसाला पीसते हैं, पानी भरते हैं, प्याज़ काटते हैं, बिस्तर बिछाते हैं, जूते साफ़ करते हैं। ये बेकस ग़ुलाम सुबह से शाम तक जुटे ही रहते हैं उनकी बेगार कब ख़त्म होगी? क्या इनका कोई ख़रीदार न आएगा? क्या इन्हें कभी कोई प्यार से न चूमेगा? क्या इनमें कभी मेहंदी न रचेगी? क्या इनमें कभी सुहाग का इत्र न बसेगा? जी चाहा ज़ोर से चीख़ पड़ूँ।<br />
“और क्या कह रहे थे?” बी आपा के हाथ तो इतने खुरदरे थे, पर आवाज़ इतनी रसीली और मीठी थी कि अगर राहत के कान होते तो... मगर राहत के न कान थे न नाक बस दोज़ख़ जैसा पेट था।<br />
“और कह रहे थे कि अपनी बी आपा से कहना कि इतना काम न किया करें और जोशाँदा पिया करें।”<br />
“चल झूटी।”<br />
“अरे वाह झूटे होंगे आपके वो...”<br />
“अरी चुप मुर्दार!” उन्होंने मेरा मुँह बंद कर दिया।<br />
“देख तो स्वेटर बुन गया है उन्हें दे आ। पर देख तुझे मेरी क़सम मेरा नाम न लीजियो।”<br />
“नहीं बी आपा। उन्हें न दो वो स्वेटर। तुम्हारी इन मुट्ठी भर हड्डीयों को स्वेटर की कितनी ज़रूरत है?” मैंने कहना चाहा पर कह न सकी।<br />
“आपा बी तुम ख़ुद क्या पहनोगी?”<br />
“अरे मुझे क्या ज़रूरत है? चूल्हे के पास तो वैसे ही झुलस रहती है।”<br />
स्वेटर देखकर राहत ने अपनी एक अब्रू शरारत से ऊपर तान कर कहा।<br />
“क्या ये स्वेटर आपने बुना है?”<br />
“नहीं तो।”<br />
“तो भई हम नहीं पहनेंगे।”<br />
मेरा जी चाहा कि उसका मुँह नोच लूँ कमीने। मिट्टी के थोदे। ये स्वेटर उन हाथों ने बुना है जो जीते जागते ग़ुलाम हैं। इसके एक-एक फंदे में किसी नसीबों जली के अरमानों की गर्दनें फंसी हुई हैं, ये उन हाथों का बुना हुआ है जो नन्हे पंगूरे झुलाने के लिए बनाए गए हैं। उनको थाम लो गधे कहीं के। और ये दो पतवार बड़े से बड़े तूफ़ान के थपेड़ों से तुम्हारी ज़िंदगी की नाव को बचा कर पार लगा देंगे। ये सितारे के गत ना बात सकेंगे। मनीपुरी और भारत नाट्यम के मुद्रा न दिखा सकेंगे। उन्हें पियानो पर रक़्स करना नहीं सिखाया गया। उन्हें फूलों से खेलना नहीं नसीब हुआ।<br />
मगर ये हाथ तुम्हारे जिस्म पर चर्बी चढ़ाने के लिए सुबह से शाम तक सिलाई करते हैं। साबुन और सोडे में डुबकियाँ लगाते हैं। चूल्हे की आँच सहते हैं। तुम्हारी ग़लाज़तें सहते हैं। तुम्हारी ग़लाज़तें धोते हैं ताकि तुम उजले चिट्टे बगुला भत्ति का ढोंग रचाए रहो। मेहनत ने उनमें ज़ख़्म डाल दिये हैं। उनमें कभी चूड़ियाँ नहीं खनकती हैं। उन्हें कभी किसी ने प्यार से नहीं थामा।<br />
मगर मैं चुप रही। बी अम्माँ कहती हैं कि मेरा दिमाग़ तो मेरी नई-नई सहेलियों ने ख़राब कर दिया है। वो मुझे कैसी नई-नई बातें बताया करती हैं। कैसी डरावनी मौत की बातें, भूक और काल की बातें। धड़कते हुए दिल के एक दम चुप-चाप हो जाने की बातें।<br />
“ये स्वेटर तो आप ही पहन लीजिए। देखिए न आपका कुरता कितना बारीक है?”<br />
जंगली बिल्ली की तरह मैंने उसका मुँह, नाक, गरेबान और बाल नोच डाले और अपनी पलंगड़ी पर जा गिरी। बी आपा ने आख़िरी रोटी डाल कर जल्दी -जल्दी तसले में हाथ धोए। और आँचल से पोंछती मेरे पास आ बैठी।<br />
“वो बोले?” उनसे न रहा गया तो धड़कते हुए दिल से पूछा।<br />
“बी आपा। ये राहत भाई बड़े ख़राब आदमी हैं।” मैंने सोचा कि मैं आज सब कुछ बता दूँगी।<br />
“क्यों?” वो मुस्कुराईं।<br />
“मुझे अच्छे नहीं लगते... देखिए मेरी सारी चूड़ियाँ चूरा हो गईं।” मैंने काँपते हुए कहा।<br />
“बड़े शरीर हैं।” उन्होंने रोमांटिक आवाज़ में शर्मा के कहा।<br />
“बी आपा... सुनो बी आपा। ये राहत अच्छे आदमी नहीं।” मैंने सुलग कर कहा। “आज मैं अम्माँ से कह दूँगी।”<br />
“क्या हुआ?” बी अम्माँ ने जा-नमाज़ बिछाते हुए कहा।<br />
“देखो मेरी चूड़ियाँ बी अम्माँ।”<br />
“राहत ने तोड़ डालीं।” बी अम्माँ मसर्रत से बोलीं।<br />
“हाँ!”<br />
“ख़ूब किया। तू उसे सताती भी तो बहुत है। ए हे तो दम काहे को निकल गया। बड़ी मोम की बनी हुई हो कि हाथ लगाया और पिघल गईं।” फिर चुम्कार कर बोलीं, “ख़ैर तू भी चौथी में बदला ले लीजियो। वो कसर निकालियो कि याद ही करें मियाँ जी।” ये कह कर उन्होंने नीयत बाँध ली।<br />
मुँह बोली बहन से फिर कान्फ़्रैंस हुई और मुआ’मलात को उम्मीद अफ़्ज़ा रास्ते पर गामज़न देखकर अज़-हद ख़ुशनुदी से मुस्कुराया गया।<br />
“ए हे तो तू बड़ी ही ठस है। ए हम तो अपने बहनोइयों का ख़ुदा की क़सम, नाक में दम कर दिया करते थे।”<br />
और वो मुझे बहनोइयों के छेड़-छाड़ के हथकंडे बताने लगीं। कि किस तरह उन्होंने सिर्फ छेड़-छाड़ के तीर बहदफ़ नुस्खे़ से उन दो नंबरी बहनों की शादी कराई जिनकी नाव पार लगने के सारे मौके़ हाथ से निकल चुके थे। एक तो उनमें से हकीम जी थे जहाँ बेचारे को लड़कियाँ-बालियाँ छेड़तीं शर्माने लगते और शर्माते-शर्माते इख्तिलाज के दौरे पड़ने लगते और एक दिन मामूँ साहब से कह दिया कि मुझे गु़लामी में ले लीजिए।<br />
दूसरे वायसराय के दफ़्तर में क्लर्क थे जहाँ सुना कि बाहर आए हैं लड़कियाँ छेड़ना शुरू कर देती थीं। कभी गिलौरियों में मिर्चें भर के भेज दीं। कभी सेवईयों में नमक डाल कर खिला दिया।<br />
ए लो, वो तो रोज़ आने लगे। आंधी आए, पानी आए, क्या मजाल जो वो न आएँ। आख़िर एक दिन कहलवा ही दिया। अपने एक जान-पहचान वाले से कि उनके यहाँ शादी करा दो। पूछा कि “भई किस से?” तो कहा, “किसी से भी करा दो।” और ख़ुदा झूट न बुलाए तो बड़ी बहन की सूरत थी कि देखो तो जैसे बेचा चला आता है। छोटी तो बस सुब्हान-अल्लाह। एक आँख पूरब तो दूसरी पच्छिम। पंद्रह तोले सोना दिया है बाप ने और बड़े साहब के दफ़्तर में नौकरी अलग दिलवाई।”<br />
“हाँ भई जिसके पास पंद्रह तोले सोना हो। और बड़े साहब के दफ़्तर की नौकरी उसे लड़का मिलते क्या देर लगती है?” बी अम्माँ ने ठंडी साँस भर कर कहा।<br />
“ये बात नहीं है बहन! आजकल के लड़कों का दिल बस थाली का बैगन होता है जिधर झुका दो उधर ही लुढ़क जाएगा।”<br />
मगर राहत तो बैंगन नहीं अच्छा-ख़ासा पहाड़ है। झुकाव देने पर कहीं मैं ही नहीं पिस जाऊँ। मैंने सोचा। फिर मैंने आपा की तरफ़ देखा। वो ख़ामोश दहलीज़ पर आ बैठी, आटा गूँध रही थीं और सब कुछ सुनती जा रही थीं। उनका बस चलता तो ज़मीन की छाती फाड़ कर अपने कुंवारपने की ला’नत समेत उसमें समा जातीं।<br />
“क्या मेरी आपा मर्द की भूकी है? नहीं वो भूक के एहसास से पहले ही सहम चुकी है। मर्द का तसव्वुर उसके ज़ह्न में एक उमंग बन कर नहीं उभरा बल्कि रोटी कपड़े का सवाल बन कर उभरा है। वो एक बेवा की छाती का बोझ है। इस बोझ को ढकेलना ही होगा।”<br />
मगर इशारों-किनायों के बावजूद राहत मियाँ न ख़ुद मुँह से फूटे और न ही उनके घर ही से पैग़ाम आया। थक-हार कर बी अम्माँ ने पैरों के तोड़े गिरवी रखकर पीर मुश्किल-कुशा की नियाज़ दिला डाली। दोपहर भर महल्ले टोले की लड़कियाँ सहन में ऊधम मचाती रहीं। बी आपा शरमाई-लजाई मच्छरों वाली कोठरी में अपने ख़ून की आख़िरी बूँदें चुसाने को जा बैठी। बी अम्माँ कमज़ोरी में अपनी चौकी पर बैठी चौथी के जोड़े में आख़िरी टाँके लगाती रहीं। आज उनके चेहरे पर मंज़िलों के निशान थे। आज मुश्किल कुशाई होगी। बस आँखों की सूईयाँ रह गई हैं। वो भी निकल जाएँगी। आज उनकी झुर्रियों में फिर मशा’लें थरथरा रही थीं। बी आपा की सहेलियाँ उनको छेड़ रही थीं और वो ख़ून की बची-खुची बूँदों को ताव में ला रही थीं। आज कई रोज़ से उनका ग़ुबार नहीं उतरा था। थके-हारे दिये की तरह उनका चेहरा एक-बार टिमटिमाता और फिर बुझ जाता। इशारे से उन्होंने मुझे अपने पास बुलाया। अपना आँचल हटा कर नियाज़ के मलीदे की तश्तरी मुझे थमा दी।<br />
“इस पर मौलवी-साहब ने दम किया है।” उनकी बुख़ार से दहकती हुई गर्म-गर्म साँस मेरे कान में लगी।<br />
तश्तरी लेकर मैं सोचने लगी। मौलवी-साहब ने दम किया है। ये मुक़द्दस मलीदा अब राहत के तंदूर में झोंका जाएगा। वो तंदूर जो छः महीने से हमारे ख़ून के छींटों से गर्म रखा गया। ये दम किया हुआ मलीदा मुराद बर लाएगा। मेरे कानों में शादियाने बजने लगे। मैं भागी-भागी कोठे से बरात देखने जा रही हूँ। दूल्हा के मुँह पर लम्बा सा सेहरा पड़ा है, जो घोड़े की अयालों को चूम रहा है।<br />
चौथी का शहाबी जोड़ा पहने फूलों से लदी शर्म से निढाल, आहिस्ता-आहिस्ता क़दम तौलती बी आपा चली आ रही हैं... चौथी का ज़र तार जोड़ा झिलमिल-झिलमिल कर रहा है। बी अम्माँ का चेहरा फूल की तरह खिला हुआ है... बी आपा की हया से बोझल आँखें एक-बार ऊपर उठती हैं। शुक्रिया का एक आँसू ढलक कर अफ़्शां के ज़र्रों में क़ुमक़ुमे की तरह उलझ जाता है।<br />
“ये सब तेरी ही मेहनत का फल है।” बी आपा की ख़ामोशी कह रही है। हमीदा का गला भर आया।<br />
“जाओ न मेरी बहनो।” बी आपा ने उसे जगा दिया। और वो चौंक कर ओढ़नी के आँचल से आँसू पोंछती ड्योढ़ी की तरफ़ बढ़ी।<br />
“ये... ये मलीदा।” उसने उछलते हुए दिल को क़ाबू में रखते हुए कहा। उसके पैर लरज़ रहे। जैसे वो साँप की बानी में घुस आई हो। और फिर पहाड़ खिसका...! और मुँह खोल दिया। वो एक दम पीछे हट गई। मगर दूर कहीं बारात की शहनाइयों ने चीख़ लगाई। जैसे कोई उनका गला घोंट रहा हो। काँपते हाथों से मुक़द्दस मलीदे का निवाला बना कर उसने राहत के मुँह की तरफ़ बढ़ा दिया।<br />
एक झटके से उसका हाथ पहाड़ की खोह में डूबता चला गया। नीचे ता’फ़्फ़ुन और तारीकी के अथाह ग़ार की गहराइयों में और एक बड़ी सी चट्टान ने उसकी चीख़ को घोंट दिया।<br />
नियाज़ के मलीदे की रकाबी हाथ से छूट कर लालटेन के ऊपर गिरी और लालटेन ने ज़मीन पर गिर कर दो-चार सिसकियाँ भरीं और गुल हो गई। बाहर आँगन में महल्ले की बहू-बेटियाँ मुश्किल-कुशा की शान में गीत गा रही थीं।<br />
सुबह की गाड़ी से राहत मेहमान-नवाज़ी का शुक्रिया अदा करता हुआ रवाना हो गया। उसकी शादी की तारीख़ तय हो चुकी थी और उसे जल्दी थी।<br />
इसके बाद इस घर में कभी अंडे न तले गए। पराठे न सिंके और स्वेटर न बुने गए। दिक़ ने जो एक अर्से से बी आपा की ताक में भागी पीछे-पीछे आ रही थी एक ही जस्त में उन्हें दबोच लिया और उन्होंने चुप-चाप अपना ना-मुराद वजूद उसकी आग़ोश में सौंप दिया।<br />
और फिर उस सहदरी में चौकी पर साफ़ सुथरी जाज़िम बिछाई गई। महल्ले की बहू-बेटियाँ जुड़ीं। कफ़न का सफ़ेद-सफ़ेद लट्ठा। मौत के आँचल की तरह बी अम्माँ के सामने फैल गया। तहम्मुल के बोझ से उनका चेहरा लरज़ रहा था। बाईं अब्रू फड़क रही थी। गालों की सुनसान झुर्रियाँ भायं-भायं कर रही थीं। जैसे उनमें लाखों अज़दहे फुंकार रहे हों।<br />
लट्ठे की कान निकाल कर उन्होंने चौपर तह किया और उनके दिल में अनगिनत क़ैंचियाँ चल गईं। आज उनके चेहरे पर भयानक सुकून और हरा भरा इत्मिनान था, जैसे उन्हें पक्का यक़ीन हो कि दूसरे जोड़ों की तरह चौथी का जोड़ा सैंता न जाए।<br />
एक दम सहदरी में बैठी लड़कियाँ-बालियां मैनाओं की तरह चहकने लगीं। हमीदा माज़ी को दूर झटक कर उनके साथ जा मिली। लाल टोल पर... सफ़ेद गज़ी का निशान! उसकी सुर्ख़ी में न जाने कितनी मा’सूम दुल्हनों का सुहाग रचा है और सफ़ेदी में कितनी ना-मुराद कुँवारियों के कफ़न की सफ़ेदी डूब कर उभरी है और फिर सब एक दम ख़ामोश हो गए। बी अम्माँ ने आख़िरी टाँका भर के डोरा तोड़ लिया। दो मोटे-मोटे आँसू उनके रुई जैसे नर्म गालों पर धीरे-धीरे रेंगने लगे। उनके चेहरे की शिकनों में से रौशनी की किरनें फूट निकलीं और वो मुस्कुरा दीं। जैसे आज उन्हें इत्मिनान हो गया कि उनकी कुबरा का सोहा जोड़ा बन कर तैयार हो गया हो और कोई दम में शहनाइयाँ बज उठेंगी। </div>
Sarbakafhttp://www.blogger.com/profile/14532797594298636576noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7380739601283005675.post-39492314626384784252020-06-02T04:44:00.000-07:002020-06-02T04:44:22.401-07:00वहशी<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
“आ गई”। हुजूम में से कोई बोला और सब लोग यूं दो-दो क़दम आगे बढ़ गए जैसे दो-दो क़दम पीछे खड़े रहते तो किसी ग़ार में गिर जाते।<br />
“कितने नंबर वाली है?” हुजूम के पीछे से एक बुढ़िया ने पूछा।<br />
“पाँच नंबर है।" बुढ़िया के अ'क़ब से एक पनवाड़ी बोला।<br />
बुढ़िया हड़बड़ा कर हुजूम को चीरती हुई आगे बढ़ने लगी कि सब लोग बस के बजाय उसे देखने लगे।<br />
“अ’जीब वहशी औरत है।" एक शख़्स ने अपनी ठोढ़ी सहलाते हुए कहा। “ले के जबड़ा तोड़ डाला।"<br />
“अबे पागल हुई है क्या?” एक और ने फ़र्याद की।<br />
इतने में बस आ गई। कंडक्टर ने खड़ाक से दरवाज़ा खोलते हुए कहा, “पहले औरतें।"<br />
हुजूम के वस्त में पहुंची हुई बुढ़िया रुक गई। हुजूम ने बड़ी नागवारी से दो हिस्सों में बट कर उसे रास्ता दे दिया।<br />
बुढ़िया ने सर पर से चादर उठा बालों पर हाथ फेरा। फिर चादर के एक पल्लू को मुट्ठी में पकड़ लिया और दो-रूया हुजूम पर फ़ातिहाना नज़र डाल कर कंडक्टर से कहने लगी, “तेरी माँ ने तुझे बिसमिल्लाह पढ़ कर जना है लड़के।"<br />
“चल आ भी माई।” कंडक्टर ने शर्मा कर कहा।<br />
“रस्ता तो मैं वैसे भी बना लेती। आधा तो बना भी लिया था पर तू ने जो बात कही वो हज़ार रुपये की है।” बुढ़िया ने बस की तरफ़ जाते हुए कहा।<br />
पहली सीढ़ी पर क़दम रखते ही वो दूसरी को हाथ से जकड़ कर यूं बैठ गई जैसे बहुत बुलंदी पर पहुंच के चकरा गई हो। कंडक्टर ने उसे थाम लिया। हाथ पकड़ के उठाया और दरवाज़े के सामने ही एक नशिस्त पर बिठा दिया। फिर सब लोग बस में भर दिए गए, इस रेले में कंडक्टर बस के परले सिरे पर पहुंच गया।<br />
बुढ़िया ने ज़रा सा उठकर, नशिस्त को हाथ से एक दो बार दबाया और आहिस्ता से बोली, “बड़ी नर्म है।” बस चली तो उसने दाएं तरफ़ देखा। एक गोरी चिट्टी औरत, दूधिया रंग की साफ़ सुथरी साड़ी पहने, सुनहरे फ्रे़म की ऐ'नक लगाए, सफ़ेद चमड़े का पर्स हाथ में लिये बैठी खिड़की से बाहर देखे जा रही थी।<br />
बुढ़िया ने भी गर्दन को ज़रा सा खींच कर बाहर देखा। हर चीज़ पीछे की तरफ़ भागी जा रही थी। वो आँखें मलकर सामने देखने लगी, पल-भर बाद उसने गोरी चिट्टी औरत की तरफ़ दुबारा देखा। फिर अपनी अंगुश्त-ए-शहादत उसके घुटने पर बजा दी। औरत ने भवें सुकेड़ कर बुढ़िया की तरफ़ देखा तो वो बोली, “चक्कर आ जाएगा, बाहर मत देखो।”<br />
गोरी चिट्टी औरत मुस्कुराई और बोली, “मुझे चक्कर नहीं आता।”<br />
“मुझे तो आ गया था।” बुढ़िया बोली।<br />
“तुम्हें आ गया था तो बाहर मत देखो, मुझे नहीं आता, इसलिए मैं तो देखूँगी।” औरत ने कहा।<br />
बुढ़िया ने पूछा, “क्या तुम बाहर नहीं देखोगी तो तुम्हें चक्कर आ जाएगा?”<br />
औरत की मुस्कुराहट यकायक ग़ायब हो गई और वो बाहर देखने लगी।<br />
बुढ़िया को अगली सीट पर एक औरत का सिर्फ़ सर नज़र आरहा था। उसने बालों में ज़र्द रंग का एक फूल सजा रखा था। बुढ़िया ने ज़रा सा आगे झुक कर फूल को ग़ौर से देखा। फिर उंगली से अपनी हमसाई का घुटना बजा कर बड़ी राज़दारी से बोली, “ये फूल असली है कि नक़ली?”<br />
“नक़ली है!” औरत बोली।<br />
“नक़ली है तो सोने का होगा।” बुढ़िया ने राय ज़ाहिर की।<br />
“रंग तो सोने जैसा है।” औरत ने कहा।<br />
“मुझे तो असली लगता है। किसी झाड़ी से उतारा है।” बुढ़िया बोली।<br />
“तो फिर असली होगा।” औरत ने खिड़की से बाहर देखते हुए कहा।<br />
बुढ़िया ने ज़रा सा हैरान हो कर गोरी चिट्टी औरत की तरफ़ देखा और फिर उंगली से उसका घुटना बजा दिया।<br />
“क्या है?” औरत ने भवें सुकेड़ कर पूछा।<br />
बुढ़िया बोली, “अ’जीब बात है। बाहर तुम देखती हो और चक्कर मुझे आजाता है।”<br />
औरत ज़रा सी मुस्कुराई।<br />
“सुनो!” बुढ़िया ने कहा।<br />
“क्या है?”औरत ने फिर से भवें सुकेड़ लीं।<br />
“लेडी हो?” बुढ़िया ने सवाल किया?<br />
“क्या?” औरत ने जैसे बुरा मान कर पूछा।<br />
“हस्पताल की लेडी हो?” बुढ़िया ने वज़ाहत की।<br />
“नहीं!” औरत बोली।<br />
“तो फिर क्या हो?”<br />
“क्या मतलब?”<br />
“क्या करती हो?”<br />
“कुछ नहीं करती।”<br />
“कुछ तो ज़रूर करती हो।” बुढ़िया ने दाएं-बाएं सर हिला कर कहा।<br />
“टिकट ले लो माई।” बुढ़िया को सर के ऊपर से कंडक्टर की आवाज़ सुनाई दी।<br />
“दे दो।” बुढ़िया ने चादर का पल्लू मुट्ठी से आज़ाद कर दिया।<br />
“कहाँ जाओगी?” कंडक्टर ने पूछा।<br />
“घर जाऊँगी बेटा।” बुढ़िया बड़े प्यार से बोली।<br />
कंडक्टर ज़ोर से हंसा। गोरी चिट्टी औरत भी बुढ़िया की तरफ़ देखकर मुस्कुराने लगी।कंडक्टर ने जैसे तमाम मुसाफ़िरों को मुख़ातिब कर के कहा, “मैंने माई से पूछा कहाँ जाओगी? बोली, घर जाऊँगी।”<br />
अब के मुसाफ़िरों ने भी कंडक्टर के क़हक़हे का साथ दिया।<br />
कंडक्टर बहुत महज़ूज़ हुआ था। इसलिए बुढ़िया को बड़ी नर्मी से समझाते हुए बोला, “घर तो सब लोग जाऐंगे माई। ये बताओ, मैं कहाँ का टिकट काटूँ?”<br />
“वालटन का।” वो बोली, “मेरा घर वालटन के पार एक गावं में है।”<br />
मुस्कुराते हुए कंडक्टर ने टिकट काट कर बुढ़िया को दिया और बोला, “साढे़ पाँच आने दे दो।”<br />
“साढे़ पाँच आने?” बुढ़िया ने चादर के पल्लू की गिरह खोलते हुए पूछा। “साढे़ पाँच आने कैसे? गौसा कह रहा था सिर्फ चार आने लगते हैं। उसने तो मुझे सिर्फ ये गोल मोल चवन्नी ही दी है।” उसने चवन्नी दो उंगलियों की पोरों में थाम कर कंडक्टर की तरफ़ बढ़ा दी।<br />
कंडक्टर बोला, “नहीं माई। चार आने नहीं, साढे़ पाँच आने लगते हैं।”<br />
बुढ़िया की आवाज़ तेज़ हो गई। “सारी दुनिया के चार आने लगते हैं, मेरे साढे़ पाँच आने लग गए? क्यों? हड्डीयों का तो ढेर हूँ। मेरा बोझ ही क्या, ले ये चार आने।”<br />
“अ’जीब मुसीबत है।” कंडक्टर के तेवर बदल गए और वो मुसाफ़िरों को सामईन बना कर तक़रीर करने लगा, “मैं तो कहता हूँ कि सरकार को क़ानून पास करना चाहिए कि जो प्राइमरी पास न हो, बस में सफ़र नहीं करे। अब इस माई को देखिए, मेव हस्पताल के स्टैंड से बस में बैठी है। वालटन जा रही है, कहती है वालटन जाऊँगी और साढे़ पाँच आने भी नहीं दूँगी। इसलिए कि किसी ने उसे चार आने ही दिए हैं।”<br />
बुढ़िया बच्चे की तरह बोली, “किसी ने क्यों? अपने ग़ौसे ने दिए हैं।”<br />
कंडक्टर ने सिलसिला-ए-तक़रीर जारी रखते और अब के मुस्कुराते हुए कहा, “इसलिए कि गौसे ने इसे सिर्फ़ चार आने दिये हैं। अब इसे कौन समझाए कि बस सरकार की है ग़ौसे की नहीं, ग़ौसे की होती तो वो तुमसे चार ही आने लेता।”<br />
“क्यों, वो क्यों लेता चार आने?” बुढ़िया बोली, “वो तो मेरा भतीजा लगता है। कमाऊ है, रोज़ अपने रीढ़े पर दूध लाता है। आज मैं उसी के रीढ़े पर तो आई थी। चार आने छोड़ चार पैसे भी नहीं मांगे। उसकी मजाल थी जो मांगता? गोद में खेलाया है। उसकी साली यहां हस्पताल में बीमार पड़ी है । मैंने कहा चलो, उसे देख लूं। उसी रीढ़े पर वापस आ जाऊँगी। मगर आज लड़की की हालत अच्छी नहीं, इसलिए गौसा वहीं रह गया और मुझे ये चवन्नी देकर कहा है कि घर चली जाऊं। अब तुम साढे़ पाँच आने मांग रहे हो। यूं करो मुझे किसी चार आने वाली जगह पर बिठा दो। मैं किसान औरत हूँ, नीचे भी बैठ जाऊँगी। तुम कहीं इस नर्म नर्म गद्दे के तो साढे़ पाँच आने नहीं मांग रहे?”<br />
“नहीं माई।” कंडक्टर ने तंग आकर कहा। “सब सवारियों के नीचे ऐसे ही गद्दे हैं।”<br />
बुढ़िया ने हैरान हो कर पूछा, “तो फिर मैं क्या करूँ?”<br />
“डेढ़ आना और निकालो।” कंडक्टर बोला।<br />
“कहाँ से निकालूं?” वो बोली, “बता जो रही हूँ कि घर से ख़ाली हाथ आई थी। ये चवन्नी भी ग़ौसे ने दी है। कल उसे लौटा दूँगी।”<br />
कंडक्टर साफ़ तौर से अपना ग़ुस्सा ज़ब्त कर रहा था। बोला, “मुझे तो आज ही चाहिए माई, मैं टिकट काट चुका हूँ। जल्दी करो। बहुत से स्टैंड गुज़र चुके हैं, कई सवारियां जमा हो गई हैं। सब के टिकट काटने हैं। कोई चैकर आ गया तो जान आफ़त में कर देगा। भई लोगो! ख़ुदा के लिए इस माई को समझाओ। जाना वालटन है और किराया मॉडल टाऊन का भी नहीं दे रही। फिर कहती है, चवन्नी से ज़्यादा एक कौड़ी भी नहीं है।”<br />
बुढ़िया की अगली नशिस्त पर बालों में फूल सजा कर बैठी हुई औरत ने पलट कर कहा, “ऐसियों की तलाशी लेनी चाहिए। इसकी जेबें इकन्नियों दुवन्नियों से भरी होती हैं।”<br />
बुढ़िया उसके सर के ऊपर चीख़ उठी, “क्या तू मेरे बेटे की घर वाली है कि तुझे मेरी जेबों का हाल भी मा’लूम है। सर में कौड़ी का फूल लगा लेने से भेजे में अक़्ल नहीं भर जाती बी-बी रानी।”<br />
फूल वाली औरत दाँत किचकिचा कर रह गई।<br />
गोरी चिट्टी औरत ने बुढ़िया का बाज़ू पकड़ कर उसे सीट की तरफ़ खींचा और वो बैठ गई।<br />
“अ’जीब वहशी औरत है।” किसी की आवाज़ आई।<br />
“ये कौन बोला?” बुढ़िया ने पलट कर बस के आख़िरी सिरे तक नज़रें दौड़ाईं। “ज़रा एक बार फिर बोले कि में उसकी ज़बान यूं लंबी लंबी खींच कर खिड़की से बाहर फेंक दूं।”<br />
गोरी चिट्टी औरत को झुरझुरी सी आ गई। वो यूं सिमट गई जैसे बुढ़िया ने सच-मुच लटकती और ख़ून टपकाती हुई ज़बान उसके ऊपर से गुज़ार खिड़की से बाहर उछाल दी है।<br />
“देख माई।” कंडक्टर जो इस दौरान में दूसरे मुसाफ़िरों के टिकट काटने लगा था, उसके क़रीब आकर सख़्ती से बोला, “साढे़ पाँच आने देगी या नहीं?”<br />
“तो तू थानेदारों की तरह बोलने लगा लड़के। कह जो रही हूँ कि चवन्नी ये रही, बाक़ी रहे छे पैसे तो वो मैं तुझे पहुंचा दूँगी। कल वालटन में आकर बैठ जाऊँगी, और तू आएगा, तो तेरे हाथ पर रख दूँगी। खरे कर लेना।”<br />
“लो और सुनो।” कंडक्टर ने सब मुसाफ़िरों से फ़र्याद की।<br />
फिर यकायक उसके तने हुए तेवर ढीले पड़ने लगे। वो एक सफेद पोश बुज़ुर्ग के पास जा कर झुक गया।<br />
बुढ़िया ने उंगली से गोरी चिट्टी औरत का घुटना बजाया। जब औरत ने उसकी तरफ़ देखा तो बुढ़िया बोली, “देख रही हो?”<br />
औरत ने उसे समझाते हुए कहा, “लगते तो माई साढे़ पाँच ही आने हैं, फिर ये बस सरकारी है। ये लड़का सरकार का नौकर है। एक आना भी किसी से कम ले तो अपनी जेब से डालेगा या नौकरी छूट जाएगी ग़रीब की।”<br />
“हे हे बेचारा।” बुढ़िया ने प्यार से कंडक्टर की तरफ़ देखा। “मैंने तो उम्र-भर अपना रिज़्क़ अपने हाथों से कमाया है। मैं क्यों किसी के रिज़्क़ पर डाका डालूं, छे पैसों के पीछे! मुझे क्या ख़बर थी, वो गौसा ही धोका दे गया। पर उसे क्या पता, वो बेचारा भी तो रीढ़े पर लाहौर आता है, अब क्या करूँ?”<br />
“यूं करो,” गोरी चिट्टी औरत ने अपना पर्स खोलते हुए कहा, “मैं तुम्हें......”<br />
इतने में कंडक्टर आ गया। बुढ़िया बोली, “भई लड़के! मुझे तो ख़बर नहीं थी कि इस तरह....”<br />
कंडक्टर बोला, “बस माई! अब सारा हिसाब ठीक हो गया है। तुझे वालटन पर ही उतारुंगा।”<br />
बुढ़िया खिल गई। “मैंने कहा था ना कि तेरी माँ ने तुझे बिसमिल्लाह पढ़के जना है। पर ये बता लड़के...चवन्नी ही पर राज़ी हो जाना था तो साढे़ पाँच आने का झगड़ा क्यों चलाया?”<br />
“हिसाब तो माई साढे़ पाँच ही आने से पूरा हुआ है।” कंडक्टर बोला।<br />
“तो मैं छः पैसे कहाँ से लाऊं?” बुढ़िया फिर उदास हो गई।<br />
“छे पैसे मुझे मिल चुके।” वो बोला, “उस चौधरी ने दिये हैं।” कंडक्टर ने सफेद पोश बुज़ुर्ग की तरफ़ इशारा करते हुए कहा।<br />
“क्यों दिये हैं?” बुढ़िया ने हैरान हो कर पूछा।<br />
कंडक्टर बोला, “तरस खा कर दे दिये।”<br />
बुढ़िया उठने की कोशिश में नशिस्त पर गिर पड़ी। “किस पर तरस खाया?” वो चिल्लाई।<br />
“तुम पर और किस पर?” कंडक्टर बोला।<br />
बुढ़िया भड़क कर उठी और चीख़ कर बोली, “ज़रा मैं भी तो देखूं अपने तरस खाने वाले को...”<br />
गोरी चिट्टी औरत फ़ौरन पर्स बंद कर के बुढ़िया की तरफ़ देखने लगी।<br />
बुढ़िया छत की रॉड और सीटों की पुश्तों के सहारे सफेद पोश बुज़ुर्ग की तरफ़ बढ़ते हुए बोलने लगी, “ये छे पैसे क्या तेरी जेब में बहुत कूद रहे थे कि तू ने तरस खा कर मेरी तरफ़ यूं फेंक दिये जैसे कुत्ते की तरफ़ हड्डी फेंकी जाती है।”<br />
“लीजिए! ये है भलाई का ज़माना।” कोई बोला।<br />
सफेद पोश बुज़ुर्ग का रंग मिट्टी का सा हो गया और बुढ़िया बोलती रही, “अरे सख़ी-दाता कहीं के, तू मुझ पर तरस खाता है, जिसने साठ साल धरती में बीज डाल कर पौदों के उगने और ख़ोशे पकने के इंतिज़ार में काट दिए, तू उन हाथों पर छे पैसे रख रहा है जिन्होंने इतनी मिट्टी खोदी है कि इकट्ठी हो तो पहाड़ बन जाये और तू मुझ पर तरस खाता है? क्या तेरी कोई माँ-बहन नहीं, तरस खाने के लिए? कोई अंधा फ़क़ीर नहीं मिला तुझे रस्ते में? शर्म नहीं आती तुझे एक किसान औरत पर तरस खाते हुए!”<br />
फिर वो कंडक्टर की तरफ़ पलटी, “ये छे पैसे जो उसने मुझ पर थूके हैं, उसे वापस कर और मुझे यहीं उतार दे। मैं पैदल चली जाऊँगी। मुझे पैदल चलना आता है।”<br />
बुढ़िया ख़ामोश हो गई। बस में सिर्फ़ गाड़ी चलने की आवाज़ आ रही थी।<br />
बस एक लम्हा बाद स्टैंड पर रुकी तो बुढ़िया सीढ़ियों की पर्वा किए बग़ैर दरवाज़े में से लटकी और बाहर सड़क पर ढेर हो गई। फिर उठी, कपड़े झाड़े और नाक़ाबिल-ए-यक़ीन तेज़ी से वालटन की तरफ़ जाने लगी।<br />
बस में से आवाज़ें आईं, “अ'जीब वहशी औरत है!” </div>
Sarbakafhttp://www.blogger.com/profile/14532797594298636576noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7380739601283005675.post-64993111560697792292019-10-04T01:52:00.000-07:002020-06-02T04:45:16.059-07:00कफ़न<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
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<a href="https://images.assettype.com/navjivanindia/2018-07/24ee7f48-a3b9-44ab-8607-8b16cd66df65/e5d1bf8b_1517_4151_84be_c0a1a93ccd16.jpg?w=1200&h=972" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="648" data-original-width="800" src="https://images.assettype.com/navjivanindia/2018-07/24ee7f48-a3b9-44ab-8607-8b16cd66df65/e5d1bf8b_1517_4151_84be_c0a1a93ccd16.jpg?w=1200&h=972" /></a></div>
झोंपड़े के दरवाज़े पर बाप और बेटा दोनों एक बुझे हुए अलाव के सामने ख़ामोश बैठे हुए थे और अंदर बेटे की नौजवान बीवी बध्या दर्द-ए-ज़ह से पछाड़ें खा रही थी और रह-रह कर उस के मुँह से ऐसी दिलख़राश सदा निकलती थी कि दोनों कलेजा थाम लेते थे। जाड़ों की रात थी, फ़िज़ा सन्नाटे में ग़र्क़। सारा गांव तारीकी में जज़्ब हो गया था। <br />
<br />
घेसू ने कहा, ''मालूम होता है बचेगी नहीं। सारा दिन तड़पते हो गया, जा देख तो आ।'<br />
<br />
माधव दर्दनाक लहजे में बोला, ''मरना ही है तो जल्दी मर क्यों नहीं जाती। देखकर क्या आऊँ।'<br />
<br />
’’तो बड़ा बेदर्द है बे साल भर जिसके साथ जिंदगानी का सुख भोगा इसी के साथ इतनी बेवफाई<br />
<br />
’’तो मुझसे तो इस का तड़पना और हाथ पांव पटकना नहीं देखा जाता<br />
<br />
चमारों का कुम्बा था और सारे गांव में बदनाम। घेसू एक दिन काम करता तो तीन दिन आराम, माधव इतना काम-चोर था कि घंटे भर काम करता तो घंटे भर चिलिम पीता। इस लिए उसे कोई रखता ही ना था। घर में मुट्ठी भर अनाज भी मौजूद हो तो उनके लिए काम करने की क़सम थी। जब दो एक फ़ाक़े हो जाते तो घेसू दरख़्तों पर चढ़ कर लक्कड़ी तोड़ लाता और माधव बाज़ार से बीच लाता। और जब तक दो पैसे रहते, दोनों इधर उधर मारे मारे फिरते। जब फ़ाक़े की नौबत आजाती तो फिर लकड़ियाँ तोड़ते या कोई मज़दूरी तलाश करते<br />
<br />
गांव में काम की कमी ना थी। काश्तकारों का गांव था। मेहनती आदमी के लिए पच्चास काम थे मगर इन दोनों को लोग उसी वक़्त बुलाते जब दो आदमीयों से एक का काम पा कर भी क़नाअत कर लेने के सिवा और कोई चारा ना होता। काश दोनों साधू होते तो उन्हें क़नाअत और तवक्कुल के लिए ज़ब्त-ए-नफ़स की मुतलक़ ज़रूरत ना होती। ये उनकी ख़लक़ी सिफ़त थी<br />
<br />
अजीब ज़िंदगी थी उनकी। घर में मिट्टी के दो-चार बर्तनों के सिवा कोई असासा नहीं। फटे चीथडों से अपनी उर्यानी को ढाँके हुए दुनिया की फ़िकरों से आज़ाद। क़र्ज़ से लदे हुए। गालियां भी खाते, मार भी खाते मगर कोई ग़म नहीं। मिस्कीन इतने कि वसूली की मुतलक़ उम्मीद ना होने पर लोग उन्हें कुछ ना कुछ क़र्ज़ दे देते थे। मटर या आलू की फ़सल में खेतों से मटर या आलू उखाड़ लाते और भवन भवन कर खाते या दस पाँच ओख तोड़ लाते और रात को चूसते<br />
<br />
घेसू ने इसी ज़ाहिदाना अंदाज़ में साठ साल की उम्र काट दी और माधव भी सआदत-मंद बेटे की तरह बाप के नक़श-ए-क़दम पर चल रहा था बल्कि उस का नाम और भी रोशन कर रहा था। इस वक़्त भी दोनों अलाव के सामने बैठे हुए आलू भवन रहे थे जो किसी के खेत से खोद लाए थे। घेसू की बीवी का तो मुद्दत हुई इंतिक़ाल हो गया था। माधव की शादी पिछले साल हुई थी। जब से ये औरत आई थी उसने इस ख़ानदान में तमद्दुन की बुनियाद डाली थी। पिसाई कर के घास छैल कर वो सैर भर आटे का इंतिज़ाम कर लेती थी और इन दोनों बे ग़ैरतों का दोज़ख़ भर्ती रहती थी। जब से वो आई ये दोनों और भी आरामतलब और आलसी हो गए थे बल्कि कुछ अकड़ने भी लगे थे। कोई काम करने को बुलाता तो बेनियाज़ी की शान में दोगुनी मज़दूरी मांगते। वही औरत आज सुबह से दर्द-ए-ज़ह में मर रही थी और ये दोनों शायद इसी इंतिज़ार में थे कि वो मर जाये तो आराम से सोएँ<br />
<br />
घेसू ने आलू निकाल कर छीलते हुए कहा, ''जा कर देख तो, क्या हालत है इस की? चुड़ैल का फ़साद होगा और किया। यहां तो ओझा भी एक रुपया मांगता है। किस के घर से आए।'<br />
<br />
माधव को अंदेशा था कि वो कोठरी में गया तो घेसू आलूओं का बड़ा हिस्सा साफ़ कर देगा। बोला, ''मुझे वहां डर लगता है।'<br />
<br />
’’डर किस बात का है?'<br />
<br />
’’मैं तो यहां हूँ ही।'<br />
<br />
’’तो तुम्हें जा कर देखो ना।'<br />
<br />
’’मेरी औरत जब मरी थी तो मैं तीन दिन तक उस के पास से हिला भी नहीं और फिर मुझसे लजाएगी कि नहीं। कभी उस का मुँह नहीं देखा। आज उस का उघड़ा हुआ बदन देखूं। उसे तन की सिद्ध भी तो ना होगी। मुझे देख लेगी तो खुल कर हाथ पांव भी ना पटक सकेगी<br />
<br />
’’मैं सोचता हूँ कि कोई बाल बचा हो गया तो क्या होगा। सोंठ, गड़, तेल, कुछ भी तो नहीं है घर में।'<br />
<br />
’’सब कुछ आ जाएगा। भगवान बचा दें तो, जो लोग अभी एक पैसा नहीं दे रहे हैं, वही तब बुला कर देंगे। मेरे नौ लड़के हुए, घर में कुछ भी ना था, मगर इस तरह हर बार काम चल गया।'<br />
<br />
जिस समाज में रात-दिन मेहनत करने वालों की हालत उनकी हालत से कुछ बहुत अच्छी ना थी और किसानों के मुक़ाबले में वो लोग जो किसानों की कमज़ोरीयों से फ़ायदा उठाना जानते थे कहीं ज़्यादा फ़ारिगुलबाल थे, वहां इस किस्म की ज़हनीयत का पैदा हो जाना कोई ताज्जुब की बात नहीं थी। हम तो कहेंगे घेसू किसानों के मुक़ाबले में ज़्यादा बारीक बैन था और किसानों की तही दिमाग़ जमईयत में शामिल होने के बदले शात्रों की फ़ित्नाप रदाज़ जमात में शामिल हो गया था। हाँ इस में ये सलाहीयत ना थी कि शात्रों के आईन-ओ-आदाब की पाबंदी भी करता। इस लिए जहां उस की जमात के और लोग गांव के सरग़ना और मुखिया बने हुए थे, इस पर सारा गांव अंगुश्तनुमाई कर रहा था फिर भी उसे ये तसकीन तो थी ही कि अगर वो ख़स्ता-हाल है तो कम से कम उसे किसानों की सी जिगर तोड़ मेहनत तो नहीं करनी पड़ती और इस की सादगी और बेज़बानी से दूसरे बेजा फ़ायदा तो नहीं उठाते<br />
<br />
दोनों आलू निकाल निकाल कर जलते जलते खाने लगे। कल से कुछ भी नहीं खाया था। इतना सब्र ना था कि उन्हें ठंडा हो जाने दें। कई बार दोनों की ज़बानें जल गईं। छल जाने पर आलू का बैरूनी हिस्सा तो ज़्यादा गर्म ना मालूम होता था लेकिन दाँतों के तले पड़ते ही अंदर का हिस्सा ज़बान और हलक़ और तालू को जिला देता था और इस अँगारे को मुँह में रखने से ज़्यादा ख़ैरीयत इसी में थी कि वो अंदर पहुंच जाये। वहां उसे ठंडा करने के लिए काफ़ी सामान थे। इस लिए दोनों जल्द जल्द निगल जाते थे हालाँकि इस कोशिश में उनकी आँखों से आँसू निकल आते<br />
<br />
घेसू को इस वक़्त ठाकुर की बरात याद आई जिसमें बीस साल पहले वो गया था। इस दावत में उसे जो सेरी नसीब हुई थी। वो उस की ज़िंदगी में एक यादगार वाक़िया थी और आज भी इस की याद ताज़ा थी। वो बोला, ''वो भोज नहीं भूलता। तब से फिर इस तरह का खाना और भरपेट नहीं मिला। लड़की वालों ने सबको पौड़ीयां खिलाई थीं सबको। छोटे बड़े सबने पौड़ीयां खाईं और असली घी की चटनी, रायता, तीन तरह के सूखे साग, एक रस्सेदार तरकारी, दही, चटनी, मिठाई अब क्या बताऊं कि इस भोज में कितना सवाद मिला। कोई रोक नहीं थी जो चीज़ चाहो माँगो और जितना चाहो खाओ। लोगों ने ऐसा खाया, ऐसा खाया कि किसी से पानी ना पिया गया, मगर परोसने वाले हैं कि सामने गर्म गोल गोल महकती हुई कचौरियां डाल देते हैं। मना करते हैं। नहीं चाहीए मगर वो हैं कि दिए जाते हैं और जब सबने मुँह धो लिया तो एक एक बड़ा पान भी मिला मगर मुझे पान लेने की कहाँ सिद्ध थी। खड़ा ना हुआ जाता था। झटपट जा कर अपने कम्बल पर लेट गया। ऐसा दरिया-दिल था वो ठाकुर<br />
<br />
माधव ने इन तकल्लुफ़ात का मज़ा लेते हुए कहा, ''अब हमें कोई ऐसा भोज खुलाता।'<br />
<br />
’’अब कोई क्या खिलाएगा? वो जमाना दूसरा था। अब तो सबको कफाईत सूझती है। सादी ब्याह में मत खुरच करो, क्रिया करम में मत खुरच करो। पूछो गरीबों का माल बटोर बटोर कर कहाँ रखोगे। मगर बटोरने में तो कमी नहीं है। हाँ खुरच में कफाईत सूझती है।'<br />
<br />
’’तुमने एक बीस पौड़ीयां खाई होंगी<br />
<br />
’’बीस से ज्यादा खाई थीं।'<br />
<br />
’’मैं पच्चास खा जाता।'<br />
<br />
’’पच्चास से कम मैंने भी ना खाई हूँ गी।अच्छा पट्ठा था। तो इस का आधा भी नहीं है।'<br />
<br />
आलू खा कर दोनों ने पानी पिया और वहीं अलाव के सामने अपनी धोतियां ओढ़ कर पांव पेट में डाल कर सो रहे जैसे दो बड़े बड़े अज़दहा कुंडलियां मारे पड़े हूँ और बध्या अभी तक कराह रही थी<br />
<br />
सुबह को माधव ने कोठरी में जा कर देखा तो इस की बीवी ठंडी हो गई थी। इस के मुँह पर मक्खियां भिनक रही थीं। पथराई हुई आँखें ऊपर टंगी हुई थीं। सारा जिस्म ख़ाक में लत-पत हो रहा था। इस के पेट में बच्चा मर गया था<br />
<br />
माधव भागा हुआ घेसू के पास आया और फिर दोनों ज़ोर ज़ोर से हाय हाय करने और छाती पीटने लगे। पड़ोस वालों ने ये आह-ओ-ज़ारी सुनी तो दौड़ते हुए आए और रस्म-ए-क़दीम के मुताबिक़ ग़म-ज़दों की तश्फ़ी करने लगे। मगर ज़्यादा रोने धोने का मौक़ा ना था कफ़न की और लक्कड़ी की फ़िक्र करनी थी। घर में तो पैसा इस तरह ग़ायब था जैसे चील के घोंसले में बाँस<br />
<br />
बाप बेटे रोते हुए गांव के ज़मीन-दारों के पास गए। वो इन दोनों की सूरत से नफ़रत करते थे। कई बार उन्हें अपने हाथों पीट चुके थे। चोरी की इल्लत में, वाअदे पर काम ना करने की इल्लत में। पूछा, ''किया है बे घिसवा। रोता क्यों है। अब तो तेरी सूरत ही नज़र नहीं आती। अब मालूम होता है तुम इस गांव में नहीं रहना चाहते।'<br />
<br />
घेसू ने ज़मीन पर सर रखकर आँखों में आँसू भरते हुए कहा।, ''सरकार बड़ी बिप्त में हूँ। माधव की घर-वाली रात गजर गई। दिन-भर तड़पती रही सरकार। आधी रात तक हम दोनों उस के सिरहाने बैठे रहे। दवा दारू जो कुछ हो सका सब किया मगर वो हमें दग़ा दे गई। अब कोई एक रोटी देने वाला नहीं रहा मालिक। तबाह हो गए। घर उजड़ गया। आपका गुलाम हूँ। अब आपके सिवा उस की मिट्टी कौन पार लगाएगा। हमारे हाथ में जो कुछ था, वो सब दवा दारू में उठ गया। सरकार ही की दया होगी तो इस की मिट्टी उट्ठेगी। आपके सिवा और किस के द्वार पर जाऊं।'<br />
<br />
ज़मींदार साहिब रहमदिल आदमी थे मगर घेसू पर रहम करना काले कम्बल पर रंग चढ़ाना था। जी में तो आया कह दें, ''चल दूर हो यहां से , लाश घर में रखकर सड़ा। यूं तो बुलाने से भी नहीं आता। आज जब ग़रज़ पड़ी तो आकर ख़ुशामद कर रहा है हरामख़ोर कहीं का। बदमाश।' मगर ये ग़ुस्सा या इंतिक़ाम का मौक़ा नहीं था। तूँ-ओ-क़रहन दो रुपय निकाल कर फेंक दिए मगर तश्फ़ी का एक कलिमा भी मुँह से ना निकाला। इस की तरफ़ ताका तक नहीं। गोया सर का बोझ उतारा हो<br />
<br />
जब ज़मींदार साहिब ने दो रुपय दिए तो गांव के बनिए महाजनों को इनकार की जुर्रत क्योंकर होती। घेसू ज़मींदार के नाम का ढंडोरा पीटना जानता था। किसी ने दो आने दिए किसी ने चार आने। एक घंटे में घेसू के पास पाँच रुपया की माक़ूल रक़म जमा हो गई। किसी ने गला दे दिया, किसी ने लक्कड़ी। और दोपहर को घेसू और माधव बाज़ार से कफ़न लाने चले और लोग बाँस वांस काटने लगे। गांव की रक़ीक़ अलक़लब औरतें आ आकर लाश को देखती थीं और इस की बेबसी पर दो बूँद आँसू गिरा कर चली जाती थीं<br />
<br />
बाज़ार में पहुंच कर घेसू बोला, ''लक्कड़ी तो उसे जलाने भर की मिल गई है क्यों माधव।'<br />
<br />
माधव बोला, ''हाँ लक्कड़ी तो बहुत है अब कफ़न चाहीए।'<br />
<br />
’’तो कोई हल्का सा कफ़न ले लें।'<br />
<br />
<br />
’’हाँ और किया लाश उठते उठते रात हो जाएगी रात को कफ़न कौन देखता है।'<br />
<br />
’’कैसा बुरा रिवाज है कि जिसे जीते-जी तन ढाँकने को चीथड़ा ना मिले, उसे मरने पर नया कफ़न चाहीए।'<br />
<br />
’’कफ़न लाश के साथ जल ही तो जाता है।'<br />
<br />
’’और क्या रखा रहता है। यही पाँच रुपय पहले मिलते तो कुछ दवा दारू करते।'<br />
<br />
दोनों एक दूसरे के दिल का माजरा माअनवी तौर पर समझ रहे थे। बाज़ार में इधर उधर घूमते रहे। यहां तक कि शाम हो गई। दोनों इत्तिफ़ाक़ से या उम्दन एक शराब-ख़ाने के सामने आ पहुंचे और गोया किसी तय-शुदा फ़ैसले के मुताबिक़ अंदर गए। वहां ज़रा देर तक दोनों तज़बज़ब की हालत में खड़े रहे। फिर घेसू ने एक बोतल शराब ली। कुछ गज़क ली और दोनों बरामदे में बैठ कर पीने लगे। कई कजीयाँ पेम पीने के बाद दोनों सरवर में आ गए<br />
<br />
घेसू बोला, ''कफ़न लगाने से किया मिलता। आखिर जल ही तो जाता। कुछ बहू के साथ तो ना जाता।'<br />
<br />
माधव आसमान की तरफ़ देखकर बोला, गोया फ़रिश्तों को अपनी मासूमियत का यक़ीन दिला रहा हो। ''दुनिया का दस्तूर है। यही लोग ब्रह्मणों को हजारों रुपय क्यों देते हैं। कौन देखता है। परलोक में मिलता है या नहीं।'<br />
<br />
’’बड़े आदमीयों के पास धन है फूंकें, हमारे पास फूँकने को किया है।'<br />
<br />
’’लेकिन लोगों को क्या जवाब दोगे? लोग पूछेंगे कि कफ़न कहाँ है?'<br />
<br />
घेसू हिंसा, ''कह देंगे कि रुपय कमर से खिसक गए बहुत ढ़ूंडा। मिले नहीं।'<br />
<br />
माधव भी हिंसा। इस ग़ैर मुतवक़्क़े ख़ुशनसीबी पर क़ुदरत को इस तरह शिकस्त देने पर बोला, ''बड़ी अच्छी थी बेचारी मरी भी तो ख़ूब खुला पिला कर।' आधी बोतल से ज़्यादा ख़त्म हो गई। घेसू ने दो सैर पूरियां मंगवाईं, गोश्त और सालन और चटपटी कलेजीयाँ और तली हुई मछलियाँ। शराब-ख़ाने के सामने दुकान थी।माधव लपक कर दो पुतलों में सारी चीज़ें ले आया। पूरे डेढ़ रुपय ख़र्च हो गए। सिर्फ थोड़े से पैसे बच रहे<br />
<br />
दोनों उस वक़्त इस शान से बैठे हुए पूरियां खा रहे थे जैसे जंगल में कोई शेर अपना शिकार उड़ा रहा हो, ना जवाबदेही का ख़ौफ़ था ना बदनामी की फ़िक्र। ज़ोफ़ के इन मराहिल को उन्होंने बहुत पहले तै कर लिया था। घेसू फ़लसफ़ियाना अंदाज़ से बोला, ''हमारी आत्मा परसन हो रही है तो क्या उसे पुन ना होगा<br />
<br />
माधव ने सर-ए-अक़ीदत झुका कर तसदीक़ की, ''जरूर से जरूर होगा। भगवान तुम अंतर्यामी (अलीम हो। उसे बैकुंठ ले जाना। हम दोनों हृदय से उसे दुआ दे रहे हैं। आज जो भोजन मिला वो कभी उम्र-भर ना मिला था।' एक लम्हा के बाद माधव के दिल में एक तशवीश पैदा हुई। बोला, ''क्यों दादा हम लोग भी तो वहां एक ना एक दिन जाऐंगे ही।' घेसू ने इस तिफ़लाना सवाल का कोई जवाब ना दिया। माधव की तरफ़ पर मलामत अंदाज़ से देखा<br />
<br />
’’जो वहां हम लोगों से पूछेगी कि तुमने हमें कफ़न क्यों ना दिया, तो क्या कहेंगे<br />
<br />
’’कहेंगे तुम्हारा सर।'<br />
<br />
’’पूछेगी तो जरूर।'<br />
<br />
’’तो कैसे जानता है उसे कफ़न ना मिलेगा? मुझे गधा समझता है। मैं साठ साल दुनिया में क्या घास खोदता रहा हूँ। इस को कफ़न मिलेगा और इस से बहुत अच्छा मिलेगा, जो हम देते।'<br />
<br />
माधव को यक़ीन ना आया, ''बोला कौन देगा? रुपय तो तुमने चिट कर दिए।'<br />
<br />
घेसू तेज़ हो गया, ''मैं कहता हूँ उसे कफ़न मिलेगा तो मानता क्यों नहीं?'<br />
<br />
’’कौन देगा, बताते क्यों नहीं?'<br />
<br />
’’वही लोग देंगे जिन्हों ने अब के दिया। हाँ वो रुपय हमारे हाथ ना आएँगे और अगर किसी तरह आ जाएं तो फिर हम इस तरह बैठे पिएँगे और कफ़न तीसरी बार मिलेगा<br />
<br />
जूँ-जूँ अंधेरा बढ़ता था और सितारों की चमक तेज़ होती थी, मैख़ाने की रौनक भी बढ़ती जाती थी। कोई गाता था, कोई बहकता था, कोई अपने रफ़ीक़ के गले लिपटा जाता था, कोई अपने दोस्त के मुँह से साग़र लगाए देता था। वहां की फ़िज़ा में सरवर था, हवा में निशा। कितने तो चलो में ही उल्लू हो जाते हैं। यहां आते थे तो सिर्फ ख़ुद-फ़रामोशी का मज़ा लेने के लिए। शराब से ज़्यादा यहां की हुआ से मसरूर होते थे। ज़ीस्त की बला यहां खींच लाती थी और कुछ देर के लिए वो भूल जाते थे कि वो ज़िंदा हैं या मुर्दा हैं या ज़िंदा दर-गोर हैं<br />
<br />
और ये दोनों बाप बेटे अब भी मज़े ले-ले के चुसकीयां ले रहे थे। सबकी निगाहें उनकी तरफ़ जमी हुई थीं। कितने ख़ुशनसीब हैं दोनों, पूरी बोतल बीच में है<br />
<br />
खाने से फ़ारिग़ हो कर माधव ने बची हुई पूरियों का पत्तल उठा कर एक भिकारी को दे दिया, जो खड़ा उनकी तरफ़ गुरसना निगाहों से देख रहा था और 'देने के ग़रूर और मुसर्रत और वलवला का, अपनी ज़िंदगी में पहली बार एहसास किया<br />
<br />
घेसू ने कहा, ''ले जा खूब खा और असीर बाद दे।' जिसकी कमाई थी वो तो मर गई मगर तेरा असीर बाद उसे जरूर पहुंच जाएगा ।रोईं रोईं से असीर बाद दे। बड़ी गाढ़ी कमाई के पैसे हैं।'<br />
<br />
माधव ने फिर आसमान की तरफ़ देखकर कहा, ''वो बैकुंठ में जाएगी। दादा बैकुंठ की रानी बनेगी<br />
<br />
घेसू खड़ा हो गया और जैसे मुसर्रत की लहरों में तैरता हुआ बोला, ''हाँ बेटा बैकुंठ में ना जाएगी तो क्या ये मोटे मोटे लोग जाऐंगे, जो गरीबों को दोनों हाथ से लोटते हैं और अपने पाप के धोने के लिए गंगा में जाते हैं और मंदिरों में जल चढ़ाते हैं।'<br />
<br />
ये ख़ुश एतिक़ादी का रंग भी बदला।तलव्वुन निशा की ख़ासीयत है। यास और ग़म का दौरा हुआ। माधव बोला, ''मगर दाद अबीचारी ने जिंदगी में बड़ा दुख भोगा। मरी भी कितना दुख झील कर।' वो अपनी आँखों पर हाथ रखकर रोने लगा<br />
<br />
घेसू ने समझाया, ''क्यों रोता है बेटा ख़स हो कि वो माया जाल से मुक्त हो गई। जंजाल से छूट गई। बड़ी भागवान थी जो इतनी जल्द माया के मोह के बंधन तोड़ दिए।'<br />
<br />
और दोनों वहीं खड़े हो कर गाने लगे।<br />
<br />
ठिगनी क्यों नेनां झुमका वे... ठिगनी...<br />
<br />
सारा मैख़ाना महू-ए-तमाशा था और ये दोनों मैकश मख़मूर महवियत के आलम में गाय जाते थे। फिर दोनों नाचने लगे। उछले भी, कूदे भी, गिरे भी, मटके भी। भाव भी बताए और आख़िर नशे से बदमसत हो कर वहीं गिर पड़े।
</div>
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<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhAnTouUeFueP2V1mJnyfv6S4SJ2-Kt04_7VThW46TiBNTrLLFFxv20pF4hzkzmbLXU6cdUlrmlBq7BFTISfyq2_AYpJCWVuh97xN73EYThrcVji_My3sWhrhM2MzjWBV8fhzRSVkKabsQ/s1600/typography-minimal-blogger-template.png" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="401" data-original-width="630" height="203" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhAnTouUeFueP2V1mJnyfv6S4SJ2-Kt04_7VThW46TiBNTrLLFFxv20pF4hzkzmbLXU6cdUlrmlBq7BFTISfyq2_AYpJCWVuh97xN73EYThrcVji_My3sWhrhM2MzjWBV8fhzRSVkKabsQ/s320/typography-minimal-blogger-template.png" width="320" /></a></div>
<br />
एक गाँव में एक ठाकुर थे| ठाकुर की सेवा में उनके कुटुंब में एक परिवार रहा करता था| लेकिन एक महामारी में कुटुंब में एक लड़के के सिवा कोई न बचा| अब वह लड़का ठाकुर की सेवा में दिन रात लगा रहता| रोज घर के काम करता, ठाकुर के बछड़े चराने जाता और जब जंगल से लौटकर आता तो रोटी खाकर सो जाता| अब उस लड़के की रोजाना यही दिनचर्या बन गई थी| ऐसे ही समय बीतता गया| एक दिन शाम के समय जब वह लड़का बछड़े चराकर घर आया तो ठाकुर की नोकरानी ने उसे ठंडी रोटी खाने को दी| बाजरे की ठंडी रोटी देखकर उस लड़के ने नोकरानी से छाछ या राबड़ी के लिए प्रार्थना की| नोकरानी ने कहा. “जा…जा… तेरे लिए बनाइ है राबड़ी!” जा, खाना हो तो ऐसे ही खा ले नहीं तो भूखा ही रह| नोकरानी की बात सुनकर लड़के के मन में गुस्सा आया, “उसने सोचा में इतनी धुप में बछड़े चराकर आया और मुझे खाने के लिए बाजरे की सुखी रोटी दे दी और जब राबड़ी के लिए बोला तो अपमान किया”! यह बात लड़के के मन में घर कर गई और अगले ही दिन वह ठाकुर के घर को छोड़ कर चला गया|<br />
<br />
गाँव के पास ही शहर था| उस शहर में संतों की एक टोली सत्संग के लिए आई हुई थी| लड़का दो दिन से भूखा था, प्रशाद के लालच में वह भी सत्संग् सुनने बेठ गया| संतों की वाणी को सुनकर वह संतों की टोली में शामिल हो गया और साधू बन गया| कुछ समय संतों के साथ रहने के पश्च्यात वह पढने के लिए काशी चला गया और विद्वान बन गया| फिर समय के साथ वह मंडलेश्वर बन गया| मंडलेश्वर बन्ने के कुछ दिन बाद एक दिन उनको उसी गाँव में आने का न्योता मिला जहाँ वे बचपन में काम किया करते थे| वे अपनी मण्डली को लेकर उस गाँव में आए|<br />
<br />
ठाकुर, जिनके यहाँ वे काम किया करते थे वे अब बूढ़े हो चुके थे| ठाकुर उनके पास गए, उनका सत्संग किया और उनको अपने घर पर भोजन के लिए आने कला निमंत्रण दिया| मंडलेश्वर मन ही मन मुस्काए और ठाकुर के घर भोजन का निमंत्रण स्वीकार कर लिया| मंडलेश्वर जी अपनी पूरी टोली के साथ ठाकुर के घर भोजन को पधारे और भोजन के लिए पंक्ति बेठी| गीता के पंद्रहवे अध्याय के बाद सबने भोजन करना आरम्भ किया| महाराज के सामने तख्ता लगा हुआ था जिस पर तरह-तरह के व्यंजन रखे हुए थे|<br />
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कुछ ही देर में ठाकुर महाराज के पास आए! उनके साथ में एक नोकर था, जिसके हाथ में एक पात्र में हलवा था| ठाकुर जी ने महाराज से प्रार्थना की. “की महाराज कृपा कर के मेरे हाथ से थोडा सा हलवा ग्रहण करें|” ठाकुर की बात सुनकर महाराज हसने लगे| ठाकर ने महाराज से इस हसी का कारन पुचा तो महाराज ने मुस्कुराते हुए ठाकुर से पुछा “आपने कुटुंब में आपकी सेवा में कई सैलून पहले एक परिवार रहता था उस परिवार में से अब कोई जीवित है क्या|” ठाकुर ने हाथ जोड़ते हुए जवाब दिया. “महाराज! महामारी के बाद उस परिवार में एक बालक बचा था जो कुछ दिन तक हमारी सेवा में इसी घर में रहा और फिर अचानक कहीं चला गया| बहुत साल हो गए उसके बाद उसे कभी देखा नहीं”<br />
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महाराज मुस्कुराते हुए बोले, “में वही लड़का हूँ…गाँव के पास ही संतों की एक टोली में चला गया था| पीछे कशी चला गया वहां शिक्षा ग्रहण की और मंडलेश्वर बन गया| संतों की शरण में रहने से आपके घर में काम करके रुखी सुखी रोटी खाने वाला वही बालक आज आपके हाथ से हलवा पूरी ग्रहण कर रहा है|<br />
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यह कहते हुए मंडलेश्वर मुस्कुराते हुए बोले,<br />
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मांगे मिले न राबड़ी, करू कहाँ लगी वरण…मोहनभोग गले में अटक्या, आ संतों की शरण||<br />
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दो दोस्तों इस कहानी से हमें यह सिखने को मिलता है की “हमेशा अच्छे लोगों की सांगत में रहना चाहिए. अच्छे लोगों की सांगत में रहने का परिणाम भी अच्छा ही होता है”|</div>
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एक गाँव में एक लड़का अपने परिवार के साथ रहता था| सुयोग्य व् संस्कारी वह लड़का हमेशा अपनि माँ का ख्याल रखता था| बस एक बात थी जो उस लड़के में सबसे बुरी थी, वह यह की वह कुछ कमाता-धमाता नहीं था| लड़के के थोडा और बड़ा होने पर माँ ने उसका यह सोचकर विवाह कर दिया की विवाह के बाद जिम्मेदारियां आने पर लड़का खुद ही कमाने लगेगा| परन्तु विवाह के बाद भी लड़के की दिनचर्या में कोई फर्क नहीं पड़ा| अब भी लड़का दिन भर बस घर में बता रहता| माँ जब भी लड़के को रोटी परोसती थी, तब वह यही कहती थी, “बेटा, ठंडी रोटी खा लो|” लड़का रोज़ यही सोचता की माँ ऐसा क्यों कहती है! लेकिन फिर भी वह चुप रहता|<br /><br />एक दिन माँ किसी काम से घर से बहार गई तो जाते समय अपनी बहु को लड़के को रोटी परोसने का कहकर गई और साथ में यह भी कहा की रोटी परोसते समय कहना की “ठंडी रोटी खा लो”| बहु ने ठीक वैसा ही किया, जब लड़का आया तो उसे रोटी परोसते समय ठंडी रोटी खाने को कहा| जैसे ही लड़के की पत्नी ने ठंडी रोटी खाने को कहा लड़के को गुस्सा आ गया| उसने सोचा पहले तो सिर्फ माँ ठंडी रोटी खाने कोकहती थी लेकिन अब तो मेरी पत्नी भी यह कहना सिख गई है|<br /><br />उसने अपनी पत्नी से पुछा “आखिर रोटी गरम है, साग गरम है तो फिर तुम लोग मुझे ठंडी रोटी खाने को क्यों कहते हो? लड़के की पत्नी ने कहा, “,मुझे तो आपकी माताजी ने ऐसा कहने को कहा था, आप उनसे पूछिए आखिर वह आपको ऐसा क्यों कहती है| पत्नी की बात सुनकर लड़का गुस्सा हो गया और बोला, “अब जब तक माँ मुझे इस तरह से कहने का उत्तर नहीं देगी में खाना नहीं खाऊंगा|<br /><br />शाम को जब माँ घर आई तो माँ ने बहु से पूछा कि क्या लड़के ने भोजन कर लिया| बहु नें लड़के के नाराज होने और भोजन ना करने की पूरी बात माँ को बता दी| थोड़ी देर बाद लड़के ने माँ से पुछा, “माँ! पहले तो सिर्फ तू मुझे ठंडी रोटी खाने का कहती थी लेकिन में तेरी बातों का बुरान्हीं मानता था लेकिन अब तो मेरी पत्नी ने भी मुझे यही कहा, आखिर तुम सब मुझे गरम रोटी को ठंडी रोटी खाने को क्यों कहते हो| माँ ने लड़के को पुछा, “बेटा..ठंडी रोटी किसे कहते हैं|” लड़के ने कहा “सुबह या कल की बनाई हुई रोटी ठंडी रोटी होती है”<br /><br />लड़के की बात सुनकर माँ ने कहा, “बेटा! अब तू ही देख, तेरे पिताजी का कमाया गया जो धन है वो ठंडी रोटी है| गरम, ताज़ी रोटी तो तब होगी जब तू कमाकर लाएगा| माँ की बात सुनकर लड़का माँ की बात समझ गया और बोला. “माँ! अब में समझ गया हूँ की जो व्यक्ति खुद धन कमाने के लायाक्ल नहीं होता उसका कहीं भी सम्मान नहीं होता| आज से में खुद कमाकर लूँगा और पुरे परिवार को ताज़ी रोटी खिलाऊंगा|<br /><br />तो दोस्तों इस कहानी से हमें यह शिक्षा मिलती है, कि विवाह होने के बाद ठंडी रोटी नहीं खानी चाहिए, अपने कमाए हुए धन से रोटी खाना चाहिए| अब आप ही सोचिये भगवान राम के वनवास के दौरान जब रावन माँ सीता को छल से ले गया| किसी भी रामायण में यह नहीं लिखा हुआ है की भगवान् राम ने अपने भाई भरत को यह समाचार दिया हो की “भरत, रावण मेरी पत्नी को छल पूर्वक ले गया है तुम आकर मेरी सहायता करो| क्यों की मर्यादापुरुषोत्तम राम यह समझते थे कि विवाह किया है तो अपनी स्त्री की रक्षा करना, अपने करताय का पालन करना उनका धर्म है| उन्होंने अपनी भुजाओं के बल से पहले सुग्रीव की सहायता की उसके बाद सुग्रीव से सहायता मांग कर माँ सीता की रक्षा की| इसीलिए विवाह तभी करना चाहिए, जब स्त्री और बच्चों का पालन पोषण करने की क्षमता हो| अगर यह ताकत न हो तो विवाह नहीं करना चाहिए|</div>
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एक बार महात्मा गाँधी के पास एक व्यक्ति गीता का रहस्य जानने के लिए आया| उसने महात्मा गाँधी से गीता के रहस्य के बारे में पुछा| गाँधी जी उस समय फावड़े से आश्रम की भूमि खोद रहे थे| उन्होंने उस व्यक्ति को पास बिठाया और फिर से आश्रम की भूमि खोदने में लग गए| इसी तरह काफी समय हो गया लेकिन महात्मा गाँधी उस व्यक्ति से कुछ नहीं बोले| आखिर में अकेले बैठे-बैठे परेशान होकर वह व्यक्ति महात्मा गाँधी से बोला – “में इतनी दूर से आपकी ख्याति सुनकर गीता का मर्म जानने के लिए आपके पास आया था लेकिन आप तो केवल फावड़ा चलाने में लगे हुए हैं|<br /><br />गाँधी जी ने उत्तर दिया – “भाई! में आपको गीता का रहस्य ही समझा रहा था|” महात्मा गाँधी की बात सुनकर वह व्यक्ति बोला – आप कहाँ समझा रहे था आप तो अभी तक एक शब्द भी नहीं बोले| गाँधी जी बोले – “बोलने की आवश्यकता नहीं है| गीता का मर्म यही है कि व्यक्ति को कर्मयोगी होना चाहिए| बस फल की आशा किए बगेर निरंतर कर्म करते चलो| यही गीता का मर्म है|”<br /><br />गाँधी जी के इस उत्तर को सुनकर व्यक्ति को गीता का रहस्य समझ में आ गया|<br /><br />तो दोस्तों इस कहानी का तर्क यही है, कि “व्यक्ति को फल की चिंता किए बगेर हमेशा कर्म करते रहना चाहिए|</div>
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