चौथी का जोड़ा

सहदरी के चौके पर आज फिर साफ़-सुथरी जाज़िम बिछी थी। टूटी-फूटी खपरैल की झिर्रियों में से धूप के आड़े तिर्छे क़त्ले पूरे दालान में बिखरे हुए थे। महल्ले-टोले की औरतें ख़ामोश और सहमी हुई सी बैठी थीं। जैसे कोई बड़ी वारदात होने वाली हो। माओं ने बच्चे छातियों से लगा लिये थे। कभी-कभी कोई मेहनती सा चिड़चिड़ा बच्चा रसद की कमी की दुहाई देकर चिल्ला उठता।
“नाईं-नाईं मेरे लाल!” दुबली पतली माँ उसे अपने घुटने पर लिटा कर यूं हिलाती जैसे धान मिले चावल धूप में पटक रही हो। और फिर हुँकारे भर कर ख़ामोश हो जाता।
आज कितनी आस भरी निगाहें कुबरा की माँ के मुतफ़क्किर चेहरे को तक रही थीं, छोटे अर्ज़ की टोल के दो पाट तो जोड़ लिए गए थे, मगर अभी सफ़ेद गज़ी का निशान ब्योंतने की किसी को हिम्मत न पड़ी थी। काट-छाँट के मुआ’मले में कुबरा की माँ का मर्तबा बहुत ऊँचा था। उनके सूखे-सूखे हाथों ने न जाने कितने जहेज़ सँवारे थे, कितने छटी-छोछक तैयार किए थे और कितने ही कफ़न ब्योंते थे। जहाँ कहीं महल्ले में कपड़ा कम पड़ जाता और लाख जतन पर भी ब्योंत न बैठी, कुबरा की माँ के पास केस लाया जाता। कुबरा की माँ कपड़े की कान निकालतीं, कलफ़ तोड़तीं, कभी तिकोन बनातीं, कभी चोखुंटा करतीं और दिल ही दिल में क़ैंची चला कर आँखों से नाप तौल कर मुस्कुरा पड़तीं।
“आस्तीन के लिए घेर तो निकल आएगा, गिरेबान के लिए कतरन मेरी बुक़ची से ले लो और मुश्किल आसान हो जाती। कपड़ा तराश कर्दा कतरनों की पिंडी बना कर पकड़ा देतीं।
पर आज तो सफ़ेद गज़ी का टुकड़ा बहुत ही छोटा था और सबको यक़ीन था कि आज तो कुबरा की माँ की नाप तौल हार जाएगी, जब ही तो सब दम साधे उनका मुँह तक रही थीं। कुबरा की माँ के पुर इस्तिक़लाल चेहरे पर फ़िक्र की कोई शक्ल न थी, चार गिरह गज़ी के टुकड़े को वो निगाहों से ब्योंत रही थीं। लाल टोल का अ’क्स उनके नीलगूँ ज़र्द चेहरे पर शफ़क़ की तरह फूट रहा था। वो उदास-उदास गहरी झुर्रियाँ अँधेरी घटाओं की तरह एक दम उजागर हो गईं, जैसे घने जंगल में आग भड़क उठी हो, और उन्होंने मुस्कुरा कर क़ैंची उठा ली।
महल्ले वालियों के जमघटे से एक लंबी इत्मिनान की साँस उभरी। गोद के बच्चे भी ठसक दिए गए। चील जैसी निगाहों वाली कुँवारियों ने चम्पा-चम्प सूई के नाकों में डोरे पिरोए, नई ब्याही दुल्हनों ने अंगुश्ताने पहन लिये। कुबरा की माँ की क़ैंची चल पड़ी थी।
सहदरी के आख़िरी कोने में पलंगड़ी पर हमीदा पैर लटकाए हथेली पर ठोढ़ी रखे कुछ सोच रही थी।
दोपहर का खाना निमटा कर उसी तरह बी अम्माँ सहदरी की चौकी पर जा बैठती हैं और बुक़ची खोल कर रंग-बिरंगे कपड़ों का जाल बिखेर दिया करती हैं। कूँडी के पास बैठी माँझती हुई कुबरा कनखियों से उन लाल कपड़ों को देखती तो एक सुर्ख़ झपकी उस ज़र्दी-माइल मटियाए रंग में लपक उठती। रुपहली कटोरियों के जाल जब पोले-पोले हाथों से खोल कर अपने ज़ानुओं पर फैलातीं तो उनका मुरझाया हुआ चेहरा एक अ’जीब अरमान भरी रौशनी से जगमगा उठता। गहरी संदूक़ों जैसी शिकनों पर कटोरियों का अ’क्स नन्ही-नन्ही मशा’लों की तरह जगमगाने लगता। हर टाँके पर ज़री का काम हिलता और मशअ’लें कपकपा उठतीं।
याद नहीं कब उसके शबनमी दुपट्टे बने, टके तैयार हुए और गाड़ी के भारी क़ब्र जैसे संदूक़ की तह में डूब गए। कटोरियों के जाल धुँदला गए। गंगा-जमुनी किरनें माँद पड़ गईं। तूली के लच्छे उदास हो गए मगर कुबरा की बरात न आई। जब एक जोड़ा पुराना हो जाता तो उसे चाले का जोड़ा कह कर सैंत दिया जाता और फिर एक नए जोड़े के साथ नई उम्मीदों का इफ़्तिताह हो जाता। बड़ी छानबीन के बाद नई दुल्हन छाँटी जाती। सहदरी के चौके पर साफ़ सुथरी चादर बिछती। महल्ले की औरतें हाथ में पानदान और बग़लों में बच्चे दबाए झाँझें बजाती आन पहुँचतीं।
“छोटे कपड़े की गोंट तो उतर आएगी, पर बच्चियों का कपड़ा न निकलेगा।”
“लो बुआ लो और सुनो। तो क्या निगोड़ मारी टोल की चूलें पड़ेंगी?” और फिर सब के चेहरे फ़िक्रमंद हो जाते। कुबरा की माँ ख़ामोश कीमियागर की तरह आँखों के फीते से तूल-ओ-अर्ज़ नापती और बीवियाँ आपस में छोटे कपड़े के मुता’ल्लिक़ खुसर-फुसर कर के क़हक़हा लगातीं। ऐसे में कोई मन चली कोई सुहाग या बन्ना छेड़ देती। कोई और चार हाथ आगे वाली समधनों को गालियाँ सुनाने लगती, बेहूदा गंदे मज़ाक़ और चुहलें शुरू हो जातीं। ऐसे मौक़ों पर कुँवारी बालियों को सहदरी से दूर सर ढाँक कर खपरैल में बैठने का हुक्म दे दिया जाता और जब कोई नया क़हक़हा सहदरी से उभरता तो बे-चारियाँ एक ठंडी साँस भर कर रह जातीं। “अल्लाह! ये क़हक़हे उन्हें ख़ुद कब नसीब होंगे?”
इस चहल-पहल से दूर कुबरा शर्म की मारी मच्छरों वाली कोठरी में सर झुकाए बैठी रहती। इतने में कतर ब्योंत निहायत नाज़ुक मरहले पर पहुँच जाती। कोई कली उल्टी कट जाती और उसके साथ बीवियों की मत भी कट जाती। कुबरा सहम कर दरवाज़े की आड़ से झाँकती।
यही तो मुश्किल थी। कोई जोड़ा अल्लाह मारा चैन से न सिलने पाया। जो कली उल्टी कट जाए तो जान लो नाइन की लगाई हुई बात में ज़रूर कोई अड़ंगा लगेगा। या तो दूल्हा की कोई दाश्ता निकल आएगी या उसकी माँ ठोस कड़ों का अड़ंगा बाँधेगी, जो गोट में कान आ जाए तो समझ लो या तो मेहर पर बात टूटेगी या भरत के पायों के पलंग पर झगड़ा होगा। चौथी के जोड़े का शगुन बड़ा नाज़ुक होता है। बी अम्माँ की सारी मश्शाक़ी और सुघड़ापा धरा रह जाता। न जाने ऐ’न वक़्त पर क्या हो जाता कि धनिया बराबर बात तूल पकड़ जाती। बिसमिल्लाह के ज़ोर से सुघड़ माँ ने जहेज़ जोड़ना शुरू कर दिया था। ज़रा सी कतरन भी बचती तो तीले दानी या शीशी का ग़लाफ़ सी कर धनक गोखरु से सँवारकर रख देतीं। लड़की का क्या है खीरे ककड़ी की तरह बढ़ती है। जो बरात आ गई तो यही सलीक़ा काम आएगा।
और जब से अब्बा गुज़रे। सलीक़ा का भी दम फूल गया। हमीदा को एक दम अब्बा याद आ गए। अब्बा कितने दुबले-पुतले लंबे जैसे मुहर्रम का अ’लम। एक-बार झुक जाते तो सीधे खड़ा होना दुश्वार था। सुबह ही सुबह उठकर नीम की मिस्वाक तोड़ लेते और हमीदा को घुटने पर बिठा कर न जाने क्या सोचा करते। फिर सोचते-सोचते नीम की मिस्वाक का कोई फूँसड़ा हलक़ में चला जाता और वो खाँसते ही चले जाते। हमीदा बिगड़ कर उनकी गोद से उतर आती। खाँसी के धक्कों से यूँ हिल-हिल जाना उसे क़तई पसंद न था। उसके नन्हे से ग़ुस्से पर वो हंसते और खाँसी सीने में बेतरह उलझती जैसे गर्दन कटे कबूतर फड़फड़ा रहे हों। फिर भी अम्माँ आकर उन्हें सहला देतीं। पीठ पर धप-धप हाथ मारतीं।
“तौबा है, ऐसी भी क्या हंसी?”
अच्छू के दबाव से सुर्ख़ आँखें ऊपर उठा कर अब्बा बेकसी से मुस्कुराते। खाँसी तो रुक जाती मगर वो देर तक बैठे हाँपा करते।
“कुछ दवा-दारू क्यों नहीं करते? कितनी बार कहा तुमसे?”
“बड़े शिफ़ा-ख़ाने का डाक्टर कहता है सूईयाँ लगवाओ और रोज़ तीन पाव दूध और आधी छटाँक मक्खन।”
“ए ख़ाक पड़े इन डाक्टरों की सूरत पर। भला एक तो खाँसी है ऊपर से चिकनाई। बलग़म न पैदा कर देगी। हकीम को दिखाओ किसी को।”
“दिखाऊँगा।” अब्बा हुक़्क़ा गुड़ गुड़ाते और फिर अच्छू लगता।
“आग लगे इस मुए हुक़्क़े को। इसी ने तो ये खाँसी लगाई है। जवान बेटी की तरफ़ भी देखते हो आँख उठा कर।”
और अब्बा कुबरा की जवानी की तरफ़ रहम तलब निगाहों से देखते। कुबरा जवान थी। कौन कहता था कि जवान थी। वो तो जैसे बिसमिल्लाह के दिन से ही अपनी जवानी की आमद की सुनावनी सुनकर ठिठक कर रह गई थी। न जाने कैसी जवानी आई थी कि न तो उसकी आँखों में किरनें नाचीं न उसके रुख़्सारों पर ज़ुल्फ़ें परेशान हुईं न उसके सीने पर तूफ़ान उठे, कभी सावन-भादो की घटाओं से मचल-मचल कर प्रीतम या साजन माँगे। वो झुकी-झुकी सहमी-सहमी जवानी जो न जाने कब दबे-पाँव उस पर रेंग आई, वैसे ही चुप-चाप न जाने किधर चल दी। मीठा बरस नमकीन हुआ और फिर कड़वा हो गया।
अब्बा एक दिन चौखट पर औंधे मुँह गिरे और उन्हें उठाने के लिए किसी हकीम या डाक्टर का नुस्ख़ा न आ सका। और हमीदा ने मीठी रोटी के लिए ज़िद करनी छोड़ दी। और कुबरा के पैग़ाम न जाने किधर रास्ता भूल गए। जानो किसी को मा’लूम ही नहीं कि इस टाट के पर्दे के पीछे किसी की जवानी आख़िरी सिसकियाँ ले रही है। और एक नई जवानी साँप के फन की तरह उठ रही है।
मगर बी अम्माँ का दस्तूर न टूटा, वो उसी तरह रोज़ दोपहर को सहदरी में रंग-बिरंगे कपड़े फैला कर गुड़ियों का खेल खेला करती हैं। कहीं न कहीं से जोड़ जमा कर के शबरात के महीने में क्रेप का दुपट्टा साढे़ सात रुपये में ख़रीद ही डाला। बात ही ऐसी थी कि बग़ैर ख़रीदे गुज़ारा न था। मँझले मामूँ का तार आया कि उनका बड़ा लड़का राहत पुलिस की ट्रेनिंग के सिलसिले में आ रहा है। बी अम्माँ को तो बस जैसे एकदम घबराहट का दौरा पड़ गया। जानो चौखट पर बरात आन खड़ी हुई। और उन्होंने अभी दुल्हन की माँग की अफ़्शाँ भी नहीं कतरी। हौल से तो उनके छक्के छूट गए। झट अपनी मुँह बोली बहन बिंदु की माँ को बुला भेजा कि “बहन मेरा मरी का मुँह देखो जो इसी घड़ी न आओ।”
और फिर दोनों में खुसर-फुसर हुई। बीच में एक नज़र दोनों कुबरा पर भी डाल लेतीं जो दालान में बैठी चावल फटक रही थी। वो इसकानाफूसी की ज़बान को अच्छी तरह समझती थी।
उसी वक़्त बी अम्माँ ने कानों की चार माशा की लौंगें उतार कर मुँह बोली बहन के हवाले कीं कि जैसे-तैसे कर के शाम तक तोला भर गोखरु, छ: माशा सलमा सितारा और पाव गज़ नेफ़े के लिए टोल ला दें। बाहर की तरफ़ वाला कमरा झाड़ पोंछ कर तैयार किया। थोड़ा सा चूना मंगा कर कुबरा ने अपने हाथों से कमरा पोत डाला। कमरा तो चिट्टा हो गया मगर उसकी हथेलियों की खाल उड़ गई और जब वो शाम को मसाला पीसने बैठी तो चक्कर खा कर दोहरी हो गई। सारी रात करवटें बदलती गुज़री। एक तो हथेलियों की वजह से, दूसरे सुबह की गाड़ी से राहत आ रहे थे।
“अल्लाह! मेरे अल्लाह मियाँ! अब के तो मेरी आपा का नसीबा खुल जाए। मेरे अल्लाह मैं सौ रका’त नफिल तेरी दरगाह में पढ़ूँगी।” हमीदा ने फ़ज्र की नमाज़ पढ़ कर दुआ’ माँगी।
सुब्ह राहत भाई आए तो कुबरा पहले ही से मच्छरों वाली कोठरी में जा छुपी थी। जब सेवईयों और पराठों का नाश्ता कर के बैठक में चले गए तो धीरे-धीरे नई दुल्हन की तरह पैर रखती कुबरा कोठरी से निकली और झूटे बर्तन उठा लिये। “लाओ मैं धोऊँ बी आपा।” हमीदा ने शरारत से कहा।
“नहीं।” वो शर्म से झुक गई।
हमीदा छेड़ती रही, बी अम्माँ मुस्कुराती रहीं और क्रेब के दुपट्टे में लप्पा टाँकती रहीं।
जिस रास्ते कान की लौंगें गई थीं उसी रास्ते फूल पत्ता और चाँदी की पाज़ेब भी चल दी और फिर हाथों की दो-दो चूड़ियाँ भी जो मँझले मामूँ ने रँडापा उतारने पर दी थीं। रूखी-सूखी ख़ुद खा कर आए दिन राहत के लिए पराठे तले जाते, कोफ्ते, भुना पुलाव महकते। ख़ुद सूखा सा निवाला पानी से उतार कर वो होने वाले दामाद को गोश्त के लच्छे ख़िलातीं।
“ज़माना बड़ा ख़राब है बेटी।” वो हमीदा को मुँह फैलाते देखकर कहा करतीं। और वो सोचा करती। “हम भूके रह कर दामाद को खिला रहे हैं। बी आपा सुब्ह-सवेरे उठकर जादू की मशीन की तरह जुट जाती है। निहार मुँह पानी का घूँट पी कर राहत के लिए पराठे तलती है। दूध औंटाती है ताकि मोटी सी मलाई पड़े। उसका बस नहीं था कि वो अपनी चर्बी निकाल कर उन पराठों में भर दे। और क्यों न भरे। आख़िर को वो एक दिन उसका अपना हो जाएगा। जो कुछ कमाएगा उसकी हथेली पर रख देगा। फल देने वाले पौदे को कौन नहीं सींचता? फिर जब एक दिन फूल खिलेंगे और फलों से लदी हुई डाली झुकेगी तो ये ता’ना देने वालियों के मुँह पर कैसा जूता पड़ेगा और इस ख़्याल ही से मेरी बी आपा के चेहरे पर सुहाग खिल उठा। कानों में शहनाइयाँ बजने लगतीं। और वो राहत भाई के कमरे को पलकों से झाड़तीं। उनके कपड़ों को प्यार से तह करतीं। जैसे वो कुछ उनसे कहते हों । वो उनके बदबूदार चूहों जैसे सडे हुए मौज़े धोतीं। बिसाँदी बनियान और नाक से लिथड़े हुए रूमाल साफ़ करतीं। उनके तेल में चहचहाते हुए तकिए के ग़लाफ़ पर स्वीट ड्रीम काढ़तीं। पर मुआ’मला चारों कोने चौकस नहीं बैठ रहा था। राहत सुबह अंडे पराठे डट कर खाता । और शाम को आकर कोफ्ते खा कर सो जाता। और बी अम्माँ की मुँह बोली बहन हाकिमाना अंदाज़ में खुसर-फुसर करतीं।
“बड़ा शर्मीला है बेचारा।” बी अम्माँ तावीलें पेश करतीं। “हाँ ये तो ठीक है पर भई कुछ तो पता चले रंग-ढंग से, कुछ आँखों से।”
“ए नौज, ख़ुदा न करे मेरी लौंडिया आँखें लड़ाए। उसका आँचल भी नहीं देखा है किसी ने।” बी अम्माँ फ़ख्र से कहतीं।
“ए तो पर्दा तुड़वाने को कौन कहे है।” बी आपा के पक्के मुहासों को देखकर उन्हें बी अम्माँ की दूर अंदेशी की दाद देनी पड़ी।
“ए बहन, तुम तो सच में बहुत भोली हो। ये मैं कब कहूँ हूँ। ये छोटी निगोड़ी कौन सी बकरीद को काम आएगी?” वो मेरी तरफ़ देखकर हँसती।
“अरे ओ नक चढ़ी! बहनोई से कोई बातचीत, कोई हंसी-मज़ाक़, उँह वारी चल दीवानी।”
“ए तो मैं क्या करूँ ख़ाला?”
“राहत मियाँ से बातचीत क्यों नहीं करती?”
“भई हमें तो शर्म आती है।”
“ए हे, वो तुझे फाड़ ही तो खाएगा।” बी अम्माँ चिड़ कर बोलीं।
“नहीं तो। मगर...” मैं ला-जवाब हो गई और फिर मिस्कोट हुई। बड़ी सोच बिचार के बाद खल के कबाब बनाए गए। आज बी आपा भी कई बार मुस्कुरा पड़ीं, चुपके से बोलीं,
“देखो हँसना नहीं, नहीं तो सारा खेल बिगड़ जाएगा।”
“नहीं हँसूँगी।” मैंने वाअ’दा किया।
“खाना खा लीजिए।” मैंने चौकी पर खाने की सेनी रखते हुए कहा। फिर जो पट्टी के नीचे रखे हुए लोटे से हाथ धोते वक़्त मेरी तरफ़ सर से पाँव तक देखा तो मैं भागी वहाँ से। मेरा दिल धक-धक करने लगा।
अल्लाह तौबा क्या ख़न्नास आँखें हैं। “जा निगोड़ी मारी अरी देख तो सही,वो कैसा मुँह बनाता है। ए हे सारा मज़ा किरकिरा हो जाएगा।”
आपा बी ने एक-बार मेरी तरफ़ देखा। उनकी आँखों में इल्तिजा थी। लौटी हुई बरातों का ग़ुबार था और चौथी के पुरानी जोड़ों की मानिंद उदासी। मैं सर झुकाए फिर खम्बे से लग कर खड़ी हो गई।
राहत ख़ामोश खाते रहे, मेरी तरफ़ न देखा। खली के कबाब खाते देखकर मुझे चाहिए था कि मज़ाक़ उड़ाऊँ। क़हक़हा लगाऊँ कि “वाह जी वाह दूल्हा भाई! खली के कबाब खा रहे हो।” मगर जानो किसी ने मेरा नरख़रा दबोच लिया हो।
बी अम्माँ ने जल कर मुझे वापस बुला लिया। और मुँह ही मुँह में मुझे कोसने लगीं। अब मैं उनसे क्या कहती कि वो मज़े से खा रहा है कमबख़्त।
“राहत भाई! कोफ्ते पसंद आए?” बी अम्माँ के सिखाने पर मैंने पूछा।
जवाब नदारद।
“बताईए ना?”
“अरी ठीक से जा कर पूछ।” बी अम्माँ ने ठोका दिया।
“आपने ला कर दिए। और हमने खाए। मज़े-दार ही होंगे।”
“अरे वाह-रे जंगली।” बी अम्माँ से न रहा गया।
“तुम्हें पता भी न चला, क्या मज़े से खली के कबाब खा गए।”
“खली के? अरे तो रोज़ काहे के होते हैं? मैं तो आ’दी हो चुका हूँ खली और भूसा खाने का।”
बी अम्माँ का मुँह उतर गया। बी आपा की झुकी हुई पलकें ऊपर न उठ सकीं। दूसरे रोज़ बी आपा ने रोज़ाना से दोगुनी सिलाई की। और फिर शाम को जब मैं खाना लेकर गई तो बोले, “कहिए आज क्या लाए हैं? आज तो लकड़ी के बुरादे की बारी है।”
“क्या हमारे यहाँ का खाना आपको पसंद नहीं आता?” मैंने जल कर कहा।
“ये बात नहीं। कुछ अ’जीब सा मालूम होता है। कभी खली के कबाब तो कभी भूसे की तरकारी।”
मेरे तन-बदन में आग लग गई। हम सूखी रोटी खा के उसे हाथी की ख़ुराक दें। घी टपकते पराठे ठुंसाएँ। मेरी बी आपा को जोशाँदा नसीब नहीं और उसे दूध मलाई निगलवाईं। मैं भन्नाकर चली आई।
बी अम्माँ की मुँह बोली बहन का नुस्ख़ा काम आ गया और राहत ने दिन का ज़्यादा हिस्सा घर ही में गुज़ारना शुरू कर दिया। बी आपा तो चूल्हे में फुकी रहतीं। बी अम्माँ चौथी के जोड़े सिया करतीं। और राहत की ग़लीज़ आँखें तेज़ बन कर मेरे दिल में चुभा करतीं। बात बे बात छेड़ना। खाना खिलाते वक़्त कभी पानी तो कभी नमक के बहाने से और साथ-साथ जुमले बाज़ी में खिसिया कर बी आपा के पास जा बैठती। जी चाहता कि किसी दिन साफ़ कह दूँ कि किस की बिक्री और कौन डाले दाना घास। ए बी मुझसे तुम्हारा ये बैल न नाथा जाएगा। मगर बी आपा के उलझे हुए बालों पर चूल्हे की उड़ती हुई राख... नहीं... मेरा कलेजा धक से हो गया। मैंने उनके सफ़ेद बाल लट के नीच छुपा दिये। नास जाए इस कमबख़्त नज़ले का बेचारी के बाल पकने शुरू हो गए।
राहत ने फिर किसी बहाने से मुझे पुकारा। “उंह!” में जल गई। पर बी आपा ने कटी हुई मुर्ग़ी की तरह जो पलट कर देखा तो मुझे जाना ही पड़ा।
“आप हमसे ख़फ़ा हो गईं?” राहत ने पानी का कटोरा लेकर मेरी कलाई पकड़ ली। मेरा दम निकल गया और भागी तो हाथ झटक कर।
“क्या कह रहे थे?” बी आपा ने शर्म-ओ-हया से घुटी हुई आवाज़ में कहा। मैं चुप-चाप उनका मुँह तकने लगी।
“कह रहे थे किसने पकाया है खाना। वाह-वाह! जी चाहता है खाता ही चला जाऊँ। पकाने वाली के हाथ खा जाऊँ... ओह नहीं... खा नहीं बल्कि चूम लूँ।”
मैंने जल्दी-जल्दी कहना शुरू किया और बी आपा का खुर्दरा हल्दी धनिया की बिसाँद में सड़ा हुआ हाथ अपने हाथ से लगा लिया। मेरे आँसू निकल आए। “ये हाथ।” मैंने सोचा जो सुबह से शाम तक मसाला पीसते हैं, पानी भरते हैं, प्याज़ काटते हैं, बिस्तर बिछाते हैं, जूते साफ़ करते हैं। ये बेकस ग़ुलाम सुबह से शाम तक जुटे ही रहते हैं उनकी बेगार कब ख़त्म होगी? क्या इनका कोई ख़रीदार न आएगा? क्या इन्हें कभी कोई प्यार से न चूमेगा? क्या इनमें कभी मेहंदी न रचेगी? क्या इनमें कभी सुहाग का इत्र न बसेगा? जी चाहा ज़ोर से चीख़ पड़ूँ।
“और क्या कह रहे थे?” बी आपा के हाथ तो इतने खुरदरे थे, पर आवाज़ इतनी रसीली और मीठी थी कि अगर राहत के कान होते तो... मगर राहत के न कान थे न नाक बस दोज़ख़ जैसा पेट था।
“और कह रहे थे कि अपनी बी आपा से कहना कि इतना काम न किया करें और जोशाँदा पिया करें।”
“चल झूटी।”
“अरे वाह झूटे होंगे आपके वो...”
“अरी चुप मुर्दार!” उन्होंने मेरा मुँह बंद कर दिया।
“देख तो स्वेटर बुन गया है उन्हें दे आ। पर देख तुझे मेरी क़सम मेरा नाम न लीजियो।”
“नहीं बी आपा। उन्हें न दो वो स्वेटर। तुम्हारी इन मुट्ठी भर हड्डीयों को स्वेटर की कितनी ज़रूरत है?” मैंने कहना चाहा पर कह न सकी।
“आपा बी तुम ख़ुद क्या पहनोगी?”
“अरे मुझे क्या ज़रूरत है? चूल्हे के पास तो वैसे ही झुलस रहती है।”
स्वेटर देखकर राहत ने अपनी एक अब्रू शरारत से ऊपर तान कर कहा।
“क्या ये स्वेटर आपने बुना है?”
“नहीं तो।”
“तो भई हम नहीं पहनेंगे।”
मेरा जी चाहा कि उसका मुँह नोच लूँ कमीने। मिट्टी के थोदे। ये स्वेटर उन हाथों ने बुना है जो जीते जागते ग़ुलाम हैं। इसके एक-एक फंदे में किसी नसीबों जली के अरमानों की गर्दनें फंसी हुई हैं, ये उन हाथों का बुना हुआ है जो नन्हे पंगूरे झुलाने के लिए बनाए गए हैं। उनको थाम लो गधे कहीं के। और ये दो पतवार बड़े से बड़े तूफ़ान के थपेड़ों से तुम्हारी ज़िंदगी की नाव को बचा कर पार लगा देंगे। ये सितारे के गत ना बात सकेंगे। मनीपुरी और भारत नाट्यम के मुद्रा न दिखा सकेंगे। उन्हें पियानो पर रक़्स करना नहीं सिखाया गया। उन्हें फूलों से खेलना नहीं नसीब हुआ।
मगर ये हाथ तुम्हारे जिस्म पर चर्बी चढ़ाने के लिए सुबह से शाम तक सिलाई करते हैं। साबुन और सोडे में डुबकियाँ लगाते हैं। चूल्हे की आँच सहते हैं। तुम्हारी ग़लाज़तें सहते हैं। तुम्हारी ग़लाज़तें धोते हैं ताकि तुम उजले चिट्टे बगुला भत्ति का ढोंग रचाए रहो। मेहनत ने उनमें ज़ख़्म डाल दिये हैं। उनमें कभी चूड़ियाँ नहीं खनकती हैं। उन्हें कभी किसी ने प्यार से नहीं थामा।
मगर मैं चुप रही। बी अम्माँ कहती हैं कि मेरा दिमाग़ तो मेरी नई-नई सहेलियों ने ख़राब कर दिया है। वो मुझे कैसी नई-नई बातें बताया करती हैं। कैसी डरावनी मौत की बातें, भूक और काल की बातें। धड़कते हुए दिल के एक दम चुप-चाप हो जाने की बातें।
“ये स्वेटर तो आप ही पहन लीजिए। देखिए न आपका कुरता कितना बारीक है?”
जंगली बिल्ली की तरह मैंने उसका मुँह, नाक, गरेबान और बाल नोच डाले और अपनी पलंगड़ी पर जा गिरी। बी आपा ने आख़िरी रोटी डाल कर जल्दी -जल्दी तसले में हाथ धोए। और आँचल से पोंछती मेरे पास आ बैठी।
“वो बोले?” उनसे न रहा गया तो धड़कते हुए दिल से पूछा।
“बी आपा। ये राहत भाई बड़े ख़राब आदमी हैं।” मैंने सोचा कि मैं आज सब कुछ बता दूँगी।
“क्यों?” वो मुस्कुराईं।
“मुझे अच्छे नहीं लगते... देखिए मेरी सारी चूड़ियाँ चूरा हो गईं।” मैंने काँपते हुए कहा।
“बड़े शरीर हैं।” उन्होंने रोमांटिक आवाज़ में शर्मा के कहा।
“बी आपा... सुनो बी आपा। ये राहत अच्छे आदमी नहीं।” मैंने सुलग कर कहा। “आज मैं अम्माँ से कह दूँगी।”
“क्या हुआ?” बी अम्माँ ने जा-नमाज़ बिछाते हुए कहा।
“देखो मेरी चूड़ियाँ बी अम्माँ।”
“राहत ने तोड़ डालीं।” बी अम्माँ मसर्रत से बोलीं।
“हाँ!”
“ख़ूब किया। तू उसे सताती भी तो बहुत है। ए हे तो दम काहे को निकल गया। बड़ी मोम की बनी हुई हो कि हाथ लगाया और पिघल गईं।” फिर चुम्कार कर बोलीं, “ख़ैर तू भी चौथी में बदला ले लीजियो। वो कसर निकालियो कि याद ही करें मियाँ जी।” ये कह कर उन्होंने नीयत बाँध ली।
मुँह बोली बहन से फिर कान्फ़्रैंस हुई और मुआ’मलात को उम्मीद अफ़्ज़ा रास्ते पर गामज़न देखकर अज़-हद ख़ुशनुदी से मुस्कुराया गया।
“ए हे तो तू बड़ी ही ठस है। ए हम तो अपने बहनोइयों का ख़ुदा की क़सम, नाक में दम कर दिया करते थे।”
और वो मुझे बहनोइयों के छेड़-छाड़ के हथकंडे बताने लगीं। कि किस तरह उन्होंने सिर्फ छेड़-छाड़ के तीर बहदफ़ नुस्खे़ से उन दो नंबरी बहनों की शादी कराई जिनकी नाव पार लगने के सारे मौके़ हाथ से निकल चुके थे। एक तो उनमें से हकीम जी थे जहाँ बेचारे को लड़कियाँ-बालियाँ छेड़तीं शर्माने लगते और शर्माते-शर्माते इख्तिलाज के दौरे पड़ने लगते और एक दिन मामूँ साहब से कह दिया कि मुझे गु़लामी में ले लीजिए।
दूसरे वायसराय के दफ़्तर में क्लर्क थे जहाँ सुना कि बाहर आए हैं लड़कियाँ छेड़ना शुरू कर देती थीं। कभी गिलौरियों में मिर्चें भर के भेज दीं। कभी सेवईयों में नमक डाल कर खिला दिया।
ए लो, वो तो रोज़ आने लगे। आंधी आए, पानी आए, क्या मजाल जो वो न आएँ। आख़िर एक दिन कहलवा ही दिया। अपने एक जान-पहचान वाले से कि उनके यहाँ शादी करा दो। पूछा कि “भई किस से?” तो कहा, “किसी से भी करा दो।” और ख़ुदा झूट न बुलाए तो बड़ी बहन की सूरत थी कि देखो तो जैसे बेचा चला आता है। छोटी तो बस सुब्हान-अल्लाह। एक आँख पूरब तो दूसरी पच्छिम। पंद्रह तोले सोना दिया है बाप ने और बड़े साहब के दफ़्तर में नौकरी अलग दिलवाई।”
“हाँ भई जिसके पास पंद्रह तोले सोना हो। और बड़े साहब के दफ़्तर की नौकरी उसे लड़का मिलते क्या देर लगती है?” बी अम्माँ ने ठंडी साँस भर कर कहा।
“ये बात नहीं है बहन! आजकल के लड़कों का दिल बस थाली का बैगन होता है जिधर झुका दो उधर ही लुढ़क जाएगा।”
मगर राहत तो बैंगन नहीं अच्छा-ख़ासा पहाड़ है। झुकाव देने पर कहीं मैं ही नहीं पिस जाऊँ। मैंने सोचा। फिर मैंने आपा की तरफ़ देखा। वो ख़ामोश दहलीज़ पर आ बैठी, आटा गूँध रही थीं और सब कुछ सुनती जा रही थीं। उनका बस चलता तो ज़मीन की छाती फाड़ कर अपने कुंवारपने की ला’नत समेत उसमें समा जातीं।
“क्या मेरी आपा मर्द की भूकी है? नहीं वो भूक के एहसास से पहले ही सहम चुकी है। मर्द का तसव्वुर उसके ज़ह्न में एक उमंग बन कर नहीं उभरा बल्कि रोटी कपड़े का सवाल बन कर उभरा है। वो एक बेवा की छाती का बोझ है। इस बोझ को ढकेलना ही होगा।”
मगर इशारों-किनायों के बावजूद राहत मियाँ न ख़ुद मुँह से फूटे और न ही उनके घर ही से पैग़ाम आया। थक-हार कर बी अम्माँ ने पैरों के तोड़े गिरवी रखकर पीर मुश्किल-कुशा की नियाज़ दिला डाली। दोपहर भर महल्ले टोले की लड़कियाँ सहन में ऊधम मचाती रहीं। बी आपा शरमाई-लजाई मच्छरों वाली कोठरी में अपने ख़ून की आख़िरी बूँदें चुसाने को जा बैठी। बी अम्माँ कमज़ोरी में अपनी चौकी पर बैठी चौथी के जोड़े में आख़िरी टाँके लगाती रहीं। आज उनके चेहरे पर मंज़िलों के निशान थे। आज मुश्किल कुशाई होगी। बस आँखों की सूईयाँ रह गई हैं। वो भी निकल जाएँगी। आज उनकी झुर्रियों में फिर मशा’लें थरथरा रही थीं। बी आपा की सहेलियाँ उनको छेड़ रही थीं और वो ख़ून की बची-खुची बूँदों को ताव में ला रही थीं। आज कई रोज़ से उनका ग़ुबार नहीं उतरा था। थके-हारे दिये की तरह उनका चेहरा एक-बार टिमटिमाता और फिर बुझ जाता। इशारे से उन्होंने मुझे अपने पास बुलाया। अपना आँचल हटा कर नियाज़ के मलीदे की तश्तरी मुझे थमा दी।
“इस पर मौलवी-साहब ने दम किया है।” उनकी बुख़ार से दहकती हुई गर्म-गर्म साँस मेरे कान में लगी।
तश्तरी लेकर मैं सोचने लगी। मौलवी-साहब ने दम किया है। ये मुक़द्दस मलीदा अब राहत के तंदूर में झोंका जाएगा। वो तंदूर जो छः महीने से हमारे ख़ून के छींटों से गर्म रखा गया। ये दम किया हुआ मलीदा मुराद बर लाएगा। मेरे कानों में शादियाने बजने लगे। मैं भागी-भागी कोठे से बरात देखने जा रही हूँ। दूल्हा के मुँह पर लम्बा सा सेहरा पड़ा है, जो घोड़े की अयालों को चूम रहा है।
चौथी का शहाबी जोड़ा पहने फूलों से लदी शर्म से निढाल, आहिस्ता-आहिस्ता क़दम तौलती बी आपा चली आ रही हैं... चौथी का ज़र तार जोड़ा झिलमिल-झिलमिल कर रहा है। बी अम्माँ का चेहरा फूल की तरह खिला हुआ है... बी आपा की हया से बोझल आँखें एक-बार ऊपर उठती हैं। शुक्रिया का एक आँसू ढलक कर अफ़्शां के ज़र्रों में क़ुमक़ुमे की तरह उलझ जाता है।
“ये सब तेरी ही मेहनत का फल है।” बी आपा की ख़ामोशी कह रही है। हमीदा का गला भर आया।
“जाओ न मेरी बहनो।” बी आपा ने उसे जगा दिया। और वो चौंक कर ओढ़नी के आँचल से आँसू पोंछती ड्योढ़ी की तरफ़ बढ़ी।
“ये... ये मलीदा।” उसने उछलते हुए दिल को क़ाबू में रखते हुए कहा। उसके पैर लरज़ रहे। जैसे वो साँप की बानी में घुस आई हो। और फिर पहाड़ खिसका...! और मुँह खोल दिया। वो एक दम पीछे हट गई। मगर दूर कहीं बारात की शहनाइयों ने चीख़ लगाई। जैसे कोई उनका गला घोंट रहा हो। काँपते हाथों से मुक़द्दस मलीदे का निवाला बना कर उसने राहत के मुँह की तरफ़ बढ़ा दिया।
एक झटके से उसका हाथ पहाड़ की खोह में डूबता चला गया। नीचे ता’फ़्फ़ुन और तारीकी के अथाह ग़ार की गहराइयों में और एक बड़ी सी चट्टान ने उसकी चीख़ को घोंट दिया।
नियाज़ के मलीदे की रकाबी हाथ से छूट कर लालटेन के ऊपर गिरी और लालटेन ने ज़मीन पर गिर कर दो-चार सिसकियाँ भरीं और गुल हो गई। बाहर आँगन में महल्ले की बहू-बेटियाँ मुश्किल-कुशा की शान में गीत गा रही थीं।
सुबह की गाड़ी से राहत मेहमान-नवाज़ी का शुक्रिया अदा करता हुआ रवाना हो गया। उसकी शादी की तारीख़ तय हो चुकी थी और उसे जल्दी थी।
इसके बाद इस घर में कभी अंडे न तले गए। पराठे न सिंके और स्वेटर न बुने गए। दिक़ ने जो एक अर्से से बी आपा की ताक में भागी पीछे-पीछे आ रही थी एक ही जस्त में उन्हें दबोच लिया और उन्होंने चुप-चाप अपना ना-मुराद वजूद उसकी आग़ोश में सौंप दिया।
और फिर उस सहदरी में चौकी पर साफ़ सुथरी जाज़िम बिछाई गई। महल्ले की बहू-बेटियाँ जुड़ीं। कफ़न का सफ़ेद-सफ़ेद लट्ठा। मौत के आँचल की तरह बी अम्माँ के सामने फैल गया। तहम्मुल के बोझ से उनका चेहरा लरज़ रहा था। बाईं अब्रू फड़क रही थी। गालों की सुनसान झुर्रियाँ भायं-भायं कर रही थीं। जैसे उनमें लाखों अज़दहे फुंकार रहे हों।
लट्ठे की कान निकाल कर उन्होंने चौपर तह किया और उनके दिल में अनगिनत क़ैंचियाँ चल गईं। आज उनके चेहरे पर भयानक सुकून और हरा भरा इत्मिनान था, जैसे उन्हें पक्का यक़ीन हो कि दूसरे जोड़ों की तरह चौथी का जोड़ा सैंता न जाए।
एक दम सहदरी में बैठी लड़कियाँ-बालियां मैनाओं की तरह चहकने लगीं। हमीदा माज़ी को दूर झटक कर उनके साथ जा मिली। लाल टोल पर... सफ़ेद गज़ी का निशान! उसकी सुर्ख़ी में न जाने कितनी मा’सूम दुल्हनों का सुहाग रचा है और सफ़ेदी में कितनी ना-मुराद कुँवारियों के कफ़न की सफ़ेदी डूब कर उभरी है और फिर सब एक दम ख़ामोश हो गए। बी अम्माँ ने आख़िरी टाँका भर के डोरा तोड़ लिया। दो मोटे-मोटे आँसू उनके रुई जैसे नर्म गालों पर धीरे-धीरे रेंगने लगे। उनके चेहरे की शिकनों में से रौशनी की किरनें फूट निकलीं और वो मुस्कुरा दीं। जैसे आज उन्हें इत्मिनान हो गया कि उनकी कुबरा का सोहा जोड़ा बन कर तैयार हो गया हो और कोई दम में शहनाइयाँ बज उठेंगी। 

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