संतों की शरण


एक गाँव में एक ठाकुर थे| ठाकुर की सेवा में उनके कुटुंब में एक परिवार रहा करता था| लेकिन एक महामारी में कुटुंब में एक लड़के के सिवा कोई न बचा| अब वह लड़का ठाकुर की सेवा में दिन रात लगा रहता| रोज घर के काम करता, ठाकुर के बछड़े चराने जाता और जब जंगल से लौटकर आता तो रोटी खाकर सो जाता| अब उस लड़के की रोजाना यही दिनचर्या बन गई थी| ऐसे ही समय बीतता गया| एक दिन शाम के समय जब वह लड़का बछड़े चराकर घर आया तो ठाकुर की नोकरानी ने उसे ठंडी रोटी खाने को दी| बाजरे की ठंडी रोटी देखकर उस लड़के ने नोकरानी से छाछ या राबड़ी के लिए प्रार्थना की| नोकरानी ने कहा. “जा…जा… तेरे लिए बनाइ है राबड़ी!” जा, खाना हो तो ऐसे ही खा ले नहीं तो भूखा ही रह| नोकरानी की बात सुनकर लड़के के मन में गुस्सा आया, “उसने सोचा में इतनी धुप में बछड़े चराकर आया और मुझे खाने के लिए बाजरे की सुखी रोटी दे दी और जब राबड़ी के लिए बोला तो अपमान किया”! यह बात लड़के के मन में घर कर गई और अगले ही दिन वह ठाकुर के घर को छोड़ कर चला गया|

गाँव के पास ही शहर था| उस शहर में संतों की एक टोली सत्संग के लिए आई हुई थी| लड़का दो दिन से भूखा था, प्रशाद के लालच में वह भी सत्संग् सुनने बेठ गया| संतों की वाणी को सुनकर वह संतों की टोली में शामिल हो गया और साधू बन गया| कुछ समय संतों के साथ रहने के पश्च्यात वह पढने के लिए काशी चला गया और विद्वान बन गया| फिर समय के साथ वह मंडलेश्वर बन गया| मंडलेश्वर बन्ने के कुछ दिन बाद एक दिन उनको उसी गाँव में आने का न्योता मिला जहाँ वे बचपन में काम किया करते थे| वे अपनी मण्डली को लेकर उस गाँव में आए|

ठाकुर, जिनके यहाँ वे काम किया करते थे वे अब बूढ़े हो चुके थे| ठाकुर उनके पास गए, उनका सत्संग किया और उनको अपने घर पर भोजन के लिए आने कला निमंत्रण दिया| मंडलेश्वर मन ही मन मुस्काए और ठाकुर के घर भोजन का निमंत्रण स्वीकार कर लिया| मंडलेश्वर जी अपनी पूरी टोली के साथ ठाकुर के घर भोजन को पधारे और भोजन के लिए पंक्ति बेठी| गीता के पंद्रहवे अध्याय के बाद सबने भोजन करना आरम्भ किया| महाराज के सामने तख्ता लगा हुआ था जिस पर तरह-तरह के व्यंजन रखे हुए थे|

कुछ ही देर में ठाकुर महाराज के पास आए! उनके साथ में एक नोकर था, जिसके हाथ में एक पात्र में हलवा था| ठाकुर जी ने महाराज से प्रार्थना की. “की महाराज कृपा कर के मेरे हाथ से थोडा सा हलवा ग्रहण करें|” ठाकुर की बात सुनकर महाराज हसने लगे| ठाकर ने महाराज से इस हसी का कारन पुचा तो महाराज ने मुस्कुराते हुए ठाकुर से पुछा “आपने कुटुंब में आपकी सेवा में कई सैलून पहले एक परिवार रहता था उस परिवार में से अब कोई जीवित है क्या|” ठाकुर ने हाथ जोड़ते हुए जवाब दिया. “महाराज! महामारी के बाद उस परिवार में एक बालक बचा था जो कुछ दिन तक हमारी सेवा में इसी घर में रहा और फिर अचानक कहीं चला गया| बहुत साल हो गए उसके बाद उसे कभी देखा नहीं”

महाराज मुस्कुराते हुए बोले, “में वही लड़का हूँ…गाँव के पास ही संतों की एक टोली में चला गया था| पीछे कशी चला गया वहां शिक्षा ग्रहण की और मंडलेश्वर बन गया| संतों की शरण में रहने से आपके घर में काम करके रुखी सुखी रोटी खाने वाला वही बालक आज आपके हाथ से हलवा पूरी ग्रहण कर रहा है|

यह कहते हुए मंडलेश्वर मुस्कुराते हुए बोले,

मांगे मिले न राबड़ी, करू कहाँ लगी वरण…मोहनभोग गले में अटक्या, आ संतों की शरण||

दो दोस्तों इस कहानी से हमें यह सिखने को मिलता है की “हमेशा अच्छे लोगों की सांगत में रहना चाहिए. अच्छे लोगों की सांगत में रहने का परिणाम भी अच्छा ही होता है”|

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